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जैन तत्त्व मीमांसा की
राजाके बचाने का उपाय करदिया । यदि वह ब्राह्मण होनहार पर निर्भर कर पोदनापुर न जाता और राजा भी ब्राह्मणकी वातसुनकर वचनेके लिये पुरुषार्थ न करता तो क्या ब्राह्मणका दुग्धाभिषेक होकर उसको धन मिलता ! अथवा राजाभी वचनेत्रा उपाय न करता तो क्या वह बच सकता था ! कभी नहीं । यदि कहा जाय कि भगवानने ऐसा ही होना देखा था इसलिये ऐसा स्वयमेव निमित्त मिल गया ठीक है स्वयमेव ही निमित्त मिला सही किन्तु कार्य तो निमित्त मिलने पर ही हुआ निमित्त कुछ नहीं करते यह वात तो न रही ब्रह्मण ने राजा का मुंह तक नहीं देखा था और न उसने उसका स्मरण भी करके निमित्त पर विचार किया किन्तु उसने थाली में कोडीयां पडने पर ही उस पर निमित्त विचार कर सव निश्चय कर लिया कि राजा पर सातवें दिन वापात पड़ेगा और हमारा दूध से अभिषेक होकर धन मिलेगा, अतः भविष्य की बात कुछ अंशोंमें निमित्त ज्ञानी भी बता सकता है तो अवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी बता दे इसमें तो आश्चर्य ही क्या है ? यह तो उनके ज्ञानकी पराकाष्ठा है । उनके ज्ञानके साथ हमारे परिणमनका ज्ञेय ज्ञायकके सिवाय और कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तप निजानन्द रसलीन' अर्थात् सर्वज्ञ देव सकल ज्ञेयके ज्ञायक होने पर भी निजानन्द रम में लवलीन रहते हैं । ज्ञेय से उनको क्या तालुक है और ज्ञेयका भी उनसे क्या तालुक है। अपने २ स्वभाव विभाव में सब मरत हैं । भगवानके ज्ञानमें हमारी एकके बाद एक पर्याय होनेवाली है वह सब झलकती है तो झलको जिससे हमको क्या ? उनके ज्ञान में हमारी सर्व पर्यायें झलकतो रहै उससे हमारा भला बुरा कुछ भा नहीं होने का है हमारा भला बुरा तो हमारे कर्तव्यपर निर्भर करता है। उनके जानने पर नहीं । ज्ञायक पक्षसे यह कहा जा सकता है कि
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