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जैन तत्त्व भीमांसा की
क्योंकि वे होनहार पर निर्भर करते हैं पुरुषार्थ पर नहीं। होनहार तो हारेका जामिन है अर्थात् पुरुषार्थ करते हुये साधक निमित्तों को मिलाते हुये वाधक कारणों को हटाते हुये भी कार्य सिद्ध न होय तो उस जगह हार मानकर कहना पडता है कि भवि तत्र्य ऐसा ही था । किन्तु इसके पहिले ही भवितव्यके भरोसे पर बैठ रहना यह परमार्थभूत कार्य नहीं कहा जासकता। इस मान्यता से तो अकल्याण ही होगा इसलिये क्रमबद्ध ( निय(मत ) पर्याय का ध्येय ठीक मान कर जो व्यक्ति उसपर निर्भर करते हैं वे आलसी निरुद्यमी पुरुषार्थहीन हैं अतत्त्व श्रद्धानी है । तत्त्वश्रद्धान वही है जिससे अपना कल्याण हो, जिसके श्रद्धा से अपना अकल्याण हो वह तत्व कैसा ? बह तो अतत्त्व ही है । जो इसके श्रद्धानसे आप ( पंडित फूलचन्द्रजी ) ने लाभ होना बतलाया था उसका आगम और युक्तियों द्वारा अच्छो तरह समालोचना की गई। क्रमबद्ध (नियमित) पर्यायको मानकर चलने वाला कभी भी अपना कल्याण नहीं कर सक्ता है । इसका कारण यही है कि कारकपक्षमें, ज्ञायकपक्षका प्रयोगकर आलसी पुरुषार्थ हीन बन जाते हैं ।
पंडित फूलचन्दजीने "जैनतत्त्वमीमांसा” के प्रथम प्रवेश द्वार में सब अधिकारोंमें संक्षेपस प्रवेश किया है इस कारण हमको भी उनके पीछे पीछे गमन करना पडा है । अर्थात् उनके सव विषयपर संक्षेप से प्रायः प्रकाश डाला गया । अव उनके विशेष विशेष वक्तव्य पर प्रकाश डालना अवशेष जो रह गया है उस पर अव थोडा प्रकाश डाल देना भी अत्यावश्यक है | क्रम नियमित पर्याय के सम्बन्ध में आपने जो समयप्राभृतकी टीका उद्धृत की है और उसका अर्थ आपने अपने मनःकल्पित किया है। उससे आगम सहमत नहीं है । स्व० पं० जयचन्दजीकी हिन्दी टीका में और आपके मनकल्पित अर्थ में वडा अंतर है । आपने
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