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समीक्षा
२८३
"जं जस्स जम्हि देसे जेण विहाणेण जम्हि कालम्मि णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अह व मरणं वा ।। ३२१ तं तस्स तम्हि देसे तेण विहाणेण तम्हि कालम्मि । को सक्कइ चालेदुं इन्दो वा अह जिणंदो वा ।। ३२२
-स्वामी कातिकेयानुप्रेक्षा । अर्थात् जो जिस जीवके जिस देशविषे जिस काल विषे जिस विधानकरि जन्म तथा मरण उपलक्षणते दुःख सुख रोग दारिद्र आदि सर्वज्ञदेवने जाण्या है जो ऐसे ही नियमकरि होयगा, सो ही तिस प्राणीके तिसही देशमें तिसही कालमें तिसही विधानकरि नियमते होय है ताकू इन्द्र तथा जिनेन्द्र तीर्थकरदेव कोई भी निवार नाहीं सके हैं । भावार्थ-सर्वत्रदेव सर्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अवस्था जाणे हैं सो जो सर्वज्ञके ज्ञानमें प्रतिभास्या है सो नियमकरि होय है तामें अधिक होन कुछ होता नाहीं ऐसा झायक पक्षसे कहा जासकता है। किन्तु कारकपक्षमें उसको लगाया जाय तो समझना चाहिये कि अभी उसका संसार बहुत वाकी है इस लिये वह अपने कर्तव्यसे च्युत होकर क्रमवद्ध पर्यायकी वाट मुंह वाये जो रहा है क्योंकि भगवानक ज्ञानमें उनका परिणमन ऐसा ही होना झलका है इस लिये उनकी ऐसो वुद्धि होती है कि भगवानके ज्ञानमें जैसा झलका है वैसा ही होयगा हमको पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं ऐसे ज्ञायकपक्ष ग्रहणकर निरुद्यमी हो जाता है किन्तु जिसके संमाका अत हो आया है उसके जैसी विपरीत वुद्धि नहीं होती वे ज्ञायक पक्षके ऊपर निर्भर कर निरुद्यमी नहीं होते वे तो कारक पक्षके पक्षपाती होकर जिनेन्द्रदेवके वताये हुये मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करनेका पुरुषार्थ करते हैं अतः वे ही मोक्ष पुरुषार्थी कहलानेके हकदार हो सकते है किन्तु जो ज्ञायक पक्षको ग्रहणकर क्रमवद्ध पर्यायपर निर्भर करते हैं वे दीर्घ संसारी हैं।
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