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जैन तत्त्व मीमांसा की
वह आगे पीछे भी होता देखा जाता है उसे मिथ्या कैसे कहा जासकता है ! इसलिये कार्योत्पत्ति में एवं द्रव्यके परिणमन में कालका कोई नियम नहीं है वह निमित्तके अनुसार कार्योत्पत्ति 'या द्रव्यकी पर्याय होजाती है।
यदि ऐसा नही माना जायगा तो अकालमृत्यु, कमका उत्क अपकर्षण संक्रमणादि कोई भी व्यवस्था बन नहीं सकेगी यदि वन सकती है तो उदाहरणपूर्वक बताने की कृपा करें | हम देखते हैं और आगम में उदाहरण भी पाते हैं कि सप्त व्यसनी जीव उमरभर अशुभ कर्मोंको बान्धता है और उनकी स्थिति सागरों पर्यंत होती है तथा उनका अनुभाग भी बहुत कटु होता है तोभी यदि वह शेष समय में अच्छे निमित्तादि मिलने पर सुधर जाता है तो वह नर्कादिगतियोंके दुख न भोग कर स्वर्गादिमें सुख भोगता है । अर्थात् श्रशुभवन्धका उदय उसके शुभरूप में परिणत होजाता है। अथवा व्यसनी जीव गुरु आदिके उपदेश से जिनदीक्षा धारण कर उन सत्र कर्मको काटकर शिवधाम में प्राप्त होजाता है । कर्मके संयोग से सागरापर्यन्त उदयमें आनेवाली सर्वपर्यायोंको क्षणभर में नष्ट कर दिया जाता है अतः पंडितजी के कथनानुसार तो उसको इतनी जलदी मोक्ष नहीं होनी चाहिये अथवा
शुभकर्मका शुमरूप में और शुभकर्मका अशुभरूप में भी परिणमन नहीं होना चाहिये जिसने जैसा कर्मोका बन्ध किया है उनकी जितनो स्थिति पडी है और उनमें जैसा अनुभाग रस पडा है। उनके अनुसार ही उसको ( उपादानको) कर्मके उदयानुसार ही क्रम
द्ध पर्यायोंका स्वकालमें ही फल भोगना चाहिये आगे पीछे नहीं अथवा उदयमें आनेवाली कर्मपर्यायें नष्ट भी नहीं होनी चाहिये क्योंकि आगे पीछे उदयमें आनेसे अथवा नष्ट होजानेसे पंडितजी के स्वकालका नियम नहीं रहता । कहांतक कहैं, पंडितजो एक दो
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