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समीक्षा
अर्थात् प्रथमके दो शुक्लध्यान पूर्वधारी यतियोंके श्रेणी आरोहण के समय होते हैं । पृथक्त्ववितर्क एकत्ववितर्क इन दोनों ध्यानो में प्रथम पृथक्त्ववितर्क ध्यान तीन योगोंके सहारे होता है। दूसरा एकवितक ध्यान तीनो योगोंमें से किसी एक योगके सहारे होता है।
वियोगम्य पृथक्त्ववितर्क त्रिपु योगेप्वेकयोगस्यैकत्ववितक ऐसा आगमवाक्य है । इसके आगे सयोगकेवलीका ध्यान काययोगके सहारे होता है और अयोगकेवलीका ध्यान योग रहित होता है। "काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति अयोगस्य
व्युपरतक्रियानिवौति" इस कथनसे स्पष्ट होजाता है कि मयोगकेवलीतक योगोंके सहारे ही ध्यान होता है और वह ध्यान ६ वर्ष घाट कोटिपूर्वतक भी होता है इसके आगे अयोगकेवलीका ध्यान योगरहित होता है उसका काल पंच लघु अक्षर उच्चारणमात्र है इस पंच लघु अक्षर उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय में कर्मकी एकसोअठतालीस प्रकृतियोमें मे ८५ पिचासी प्रकृतियों को "व्युपरक्रियानिवर्ती" ध्यान के द्वारा नष्ट करके कमरहित होकर मोक्षमें यह जीव पहुंच जाता है । इसके पहिले एकत्ववितक दूसरे ध्यानके द्वारा ६३ वेसठ प्रकृतियोंका नाश कर यह जीव केवली बन जाता है। यह ध्यानकी महिमा है । इसकी धारणा छोडनेवाले और योगोंसे मुह मोडनेवाले कर्मोको किस प्रकारसे तोडकर मोक्ष जासकते हैं सो शास्त्रीजी उदाहरणपूर्वक वतावें । अन्यथा उक्तकथनको मिथ्या स्वीकार करें । यदि कहो कि यह कथन चउदहवेंगुणस्थानके अंतसमयका है इसलिये मिथ्या
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