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जेन तत्त्व मामांसा को
का स्वसमय है । जैसे मनुष्यपर्यायका स्वसमय मनुष्य प्रायु पयत है वह उसपर्यायका स्वकाल है वह उसकालमें सत् पर्यायबान है । जब उसका आयु (स्वकाल) खतम होता है तब उसीसमयमें जो विद्यमान नहीं है ऐसी देवादिपर्याय उसीसमय उत्पन होजाती है उसमें कालभेद नहीं है वही उस देवादिपर्यायका स्वसमय है। अर्थात् जो स्वसमय मनुष्यपर्यायका था वहीं स्वसमय देवादिपर्यायका है क्योंकि मनुष्यपर्यायका नाश और देवपर्यायकी उत्पत्ति एक ही समयमें होगी इसलिये दोनू पर्यायों का स्वकाल वही एकसमय है । यदि ऐसा न माना जायगा तो सतपदार्थकी सिद्धि ही नहीं होगी क्योंकि सत्का लक्षण ही प्राचार्यान ऐसा ही किया है " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्" ३० तत्त्वार्थसूत्र” इसलिये उत्पादव्यय दानोंका स्वकाल एक ही समयमात्र है। ऐसा नहीं है कि मनुष्यपर्यायका नाश होनेके बाद दूसरे समयमें जिस पर्यायका स्वकाल उपस्थित हुआ है वही पर्याय उत्पन्न होगी दूसरी नहीं। यदि ऐसा मान लिया जायगा तो जिसको मनुष्य पर्याय के नाशके बाद देवपर्यायका नम्बर आया है वह यदि मनुष्यपर्याय में पापाचार करता रहै तो क्या उसका नम्बर देवपर्याय में ही प्राप्त होगा कभी नहीं । 'जैसा करेगा, तेसा भरेगा' यह अटल सिद्धान्त है । इसी बातका समर्थन पूज्यपादस्वामीने इष्टोपदेशमें किया है।
" वरं व्रतैः पदं देवं नाववत नारकं । छायातपस्थयार्भेदः प्रतिपालयतोमहान् "
प्राचार्य कुन्दकुन्दस्वामी भी इसवातका समर्थन करते हैं। देखो मोक्षपाहुड गाथा २५ । ।
" वरवयतवेहि सग्गो मादुक्खं होउ निरइतिरेहिं ।
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