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समीक्षा
न जातु रागादि निमित्तभावमात्मात्मनो याति यथाकान्तः नस्मिन्निमित्त परसंग एवं वस्तस्वभावोऽयमुदेति तावत्" __ अर्थात् जिसप्रकार सूर्यकान्तमणि स्वय अग्निरूप परिणमन नहीं करतो उसीप्रकार आत्मा कमा भा स्वमेव रागादिरूप परिरणमन नहीं करना ' परन्तु जिसप्रकार सूर्यकान्त मणीमें अग्निरूप परिणमनकरनेकी योग्यता विद्यमान होतेहुये भी सूर्यकी किरणों का जवतक निमित्त नही प्राप्त होता है तबतक वह अग्निरूप परिणत नहीं होती जब उसको सूर्यको किरो'का निमित्तलता है तब बद अग्निरूपमें परिणत होजाती है । उसीप्रकार आत्मामें रागादिरूप परिणमन करने की योग्यता वैभाविको शक्तिद्वारा विद्यमान है तो भो वह स्वयं रागादिरूप विना निमित्त के परिणमन नह! करता। जब उसको रागादिरूप परिणमन करने का निमित्त मिलता है तव ही वह रागादिरूप परिणभन करता है अन्यथा नही ।
इस कथनसे निमित्तके विना उपादान स्वयं कार्यरूप नहीं परिणमन करता है और वः प्रेरक निमित्त के अनुसार परिणमन करता है ऐमा सिद्ध होता है।
प्रेरक कारणका निषेध करते हुये सिद्धान्त शास्त्रीजीने पंचास्तिकायकी गाथाकी टीका उद्घृत की है उससे प्रेरक कारणका निषेध नही होता प्रत्युन सिद्ध ही होता है।
"यथा हि गतिपरिणतः प्रभंजनो वैजन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते, न तथा धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वान्न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हतुकर्तृत्वम् किन्तु सलिलमिव मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकारणत्वेनोदासीन एवासौ गते प्रसरो भवति"
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