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जैन तत्र मीमांसा की
अर्थात् जिसप्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतु - कर्ता दिखाई देता है उस प्रकार धर्मद्रव्य नहीं । इसका कारण यह है कि पवन प्रेरक निमित्तकारण है इसलिये जिस तरफकी हवा चलती है उसोतरफ वह ध्वजाको फहराती है किन्तु धर्मद्रव्य निष्क्रिय उदासीन निमित्तकारण है दमलिये वह जीव और पुद्गलद्रव्यको गमन करनेमें सहकारी कारण है जिसप्रकार पानी (जल) मीनको गमनकराने में सहकारी कारण है।
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इस कथन से प्रो रककारणकी सिद्धि हो होती है खंडन नही होता | अतः जैनागम में उदामानकारण, सहायक कारण, वलदानकारण, और प्रेरक कारण इसतरह निमित्तकारणोंकी संख्या अनेक प्रकार बतलाई है। जिस कार्योत्पत्तिमं जिस निमित्तकी आवश्यक्ता होती है वह कार्य उसनिमित्तके बिना नहीं होसकता । यदि होता है तो एकादि उदाहरणस्वरूपतलाने की कृपा करें। केवल कह देने से काम नहीं चलता ।
उपादान निमित्त संवादने आप- निमित्तकी अकिंचित्करता सिद्धकरने में उद्धृत किया है किन्तु उससे भी निमित्तकारणकी अकिंचित्करता सिद्ध नहीं होती प्रत्युत निमित्तकी प्रबलता ही सिद्ध होती है ।
भैया भगौती दासजीने निमित्तको हारमें जो आखरी दोहा कहा है उससे भी निमित्तकी जीतकीही सिद्धि होती है । देखो वह दोहा ४०
"तव निमित्त हारयो तहां अब नहीं जोर वसाय | उपादान शिवलोक में पहुँच्यो कर्म खिपाय "
अर्थात् उपादान जव शिवलोक में पहुंच जाता है तब वहांपर निमित्तका कुछ जोर नहीं चलता । यह बात सत्य है क्योंकि वहां पर निमिनका कार्य कुछ भी न रहा किन्तु इसके पहिले तो
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