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जन तत्त्व मीमांसा की
क्रियाओंसे धर्म नहीं होता है तो शरीराश्रित क्रियाओं से अधर्म भी नहीं होता ऐसा मानना पड़ेगा श्रतः कानजीके मत में शरीरात्रित क्रियाओं से न वन्ध है और न मोक्ष है। उनके मत में श्रात्मा सदा मुक्त ही है अर्थात वन्धरहित सदा शरीर से भिन्न हो है । जो जैनागम में शरीरका आत्मा के साथ अनादि का सम्बन्ध माना है वह मिथ्या है। " श्रनादिसम्बन्धे च" इसको मिथ्या माननेवाले कानजी शरीराश्रित क्रियाओं से धर्म होना नहीं मानते श्रर्थात् शरीरका सम्बन्ध तो आत्मा के साथ अनादिकाल से है ही और जबतक मोक्ष न होगा तबतक शरीर श्रात्मा के साथ रहेगा ही, इस हालत में शरीराश्रित क्रियाओं में धर्म न माननेवाले कानजी स्वामी और उनके भक्तजनों का संसार अवस्था में धर्म साधन भी शरीराश्रित नहीं होगा और विना शरीराश्रित धर्म साधन के उनका संसार से छुटकारा भी नहीं होगा ।
जो विवेकी पुरुष शरीराश्रित क्रियाओं के द्वारा ही धर्म अधर्म होना मानते हैं। वही पुरुष हिंसादि धर्मको छोडकर धर्मध्यानमें लगकर संसारका अंत कर सकता है अर्थात् मोक्ष प्राप्ति कर सकता है ।
"काज विना न करें जिय उद्यम लाजविना रमाहि न जूभे डील विना न सधे परमारथ सील विना सतसों न अरू नेम विना न लह्रै निहवे पद प्रेम बिना रसरीति न बूझे ध्यानविना न थमे मनकी गति ज्ञानविना शिवपंथ न सूझे"
इसमें बतलाया है कि डील बिना ( शरीर विना) न सधे पर
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