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जैन तत्त्व मीमांसा की
अधिक नही यह तो नियम है परन्तु यह नियम नहीं है कि वह इसके बीच में मोक्ष प्राप्त नही कर सकता है । वह देव और पुरुषार्थके बलसे जब कभी भी मक्षिका प्राप्ति करसकता है। विना देव और पुरुषार्थ के कोई भी कार्यको सिद्धि नहीं होती यह बाल आपके दिये गये प्रमाण से भी सुसिद्ध है ।
" योग्यता कर्म पूर्व वा दैवमुभयमदृष्टम् पौरुषं पुन
रिहचेष्टितं दृष्टम् । ताभ्यामर्थसिद्धिः । I
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अर्थात देव और पुरुषार्थ के मिलनेपर ही कार्यसिद्धि होती हैं इनसे एककी कमी होने पर कार्यसिद्धि नहीं होती।
तदन्यतरापायेऽघटनात् । पौरुपमात्रेऽर्थादर्शनात्
देवमात्र वा समानर्थक्यप्रसंगात "
अर्थात् केवल पौरुषसे अर्थको सिद्धि माननेपर अर्थका दर्शन नहीं होता तथा केवल दैवसे माननेपर समीहाकी निष्फलताका प्रसंग आता है ।
इस कथनसे केवल उपादानकी योग्यतासे पुरुषार्थ करनेपर भी कार्य सिद्धि नहीं होती उसमें देव (कर्म) का भी निमित्त अवश्य होना चाहिये। जो आप निमित्तको अकिंचित् कर मान ते हैं उसका इस कथन से खंडन होजाता है। आचार्य कहते हैं--- कि विना निमित्त के कोई भी कार्य नहीं होता । निमित्त चाहे उदासीन हो सहायक हो बलदायक हो अथवा प्रेरक हो इन में से कोई भी हो, कार्योत्पत्ति में इनकी नियुक्ति आवश्यक है । इन निमित्तोंके विना केवल उपादान की योग्यता से कार्योत्पत्ति नहीं होती अतः उपादानकी योग्यता को व्यक्त करने में भी निमित्त प्रधान है। जैसे आत्मा में केवलज्ञान या सम्यक्त्व प्राप्त करने की
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