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जैन तत्व मीमांसा की
गमसम्यक्त्ववलात् मोक्षः स्यात् स्यादधिगमसम्यग्दर्शनस्य साफल्यम् । न चादोऽस्ति । अतः कालेन योऽस्य मोनोऽमौ निमर्गजसम्यक्त्वादेव सिद्ध इति "
" इस वार्तिक और उसकी टीकामें कहागया है कि यदि नियत मोक्षकालके पूर्व अधिगम सम्यक्त्वके वलसे मोक्ष होवे तो अधिगम सफल होवे । परन्तु ऐमा नहीं है इसलिये स्वकालके आश्रयसे जो इस भव्य जीवके मोक्ष प्राप्ति है वह निसर्गज सम्यक्त्वसे ही सिद्ध है।
"इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त कथन द्वारा भट्टाकलंक देवने भी इस तथ्यको स्वीकार किया है कि प्रत्येक भव्यजीवको उसकी मोक्षप्राप्तिका स्त्रकाल आने पर मुक्तिलाभ अवश्य होता है । इस से सिद्ध है कि लोकमें जिसने भी कार्य होते हैं वे अपने कालके प्राप्त होनेपर ही होते हैं। आगे पीछे नहीं "
जैन तत्वमीमांसा पृष्ठ ७४-७५ - पंडितजी ! आपके उपरोक्त कथन से न तो प्रत्येक कार्यकी निष्पत्तिमें स्वकाल ही सिद्ध होता है और न कार्योत्पत्ति, निमित्त विना केवलद्रव्य की योग्यतासे ही सिद्ध हो पाई है, और न उपादान अपने पुरुषार्थ द्वारा वाह्य निमित्त के विना कार्य कुशल हो सकता है ऐसा आपके कथनसे स्पष्ट होजाता है फिर भी
आपने उक्तविषय को सिद्ध करने में परिश्रम किया है वह श्रापका परिश्रम आपकी मान्यताका घातक बनगया यह दुःख की बात है। ___ आपने जो भट्टाकलंकदेवका निसर्गज और अधिगमज सम्यक्त्वके विषयका प्रमाण देकर उसके द्वारा मोक्षप्राप्ति में स्वकाल सिद्ध करनेकी चेष्टा की है वह प्रयोजनभूत नहीं है।
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