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जैन तत्त्व मीमांसा की
परिणाम ( पर्याय ) से निरुत्सुक होनेके कारण घट नहीं होता अतः बाह्यमें दण्डादि निमित्त सापेक्ष होनेसे घट होता है। दण्डादि घट नहीं होते । इसलिय दण्डादि निमित्त मात्र है"
" इस प्रकार इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि उपादानगत योग्यताके कार्य भवनरूप व्यापारके सन्मुख होने पर ही वह कार्य होता है अन्यथा नहीं होता" ।
जैन तत्त्वमीमांसा पृष्ठ ७१-७.-७३ इसके आगे आप लिखते हैं कि--
"यदि तत्त्वार्थवार्तिक के उक्त उल्लं ख पर बारीकी से ध्यान दियाजाय तो उससे यह भी विदित हो जाता है कि घट निष्पत्तिके अनूकूल कुम्हारको जो प्रयत्न प्रेरक निमित्त कहा जाता है वह निमित्तमात्र है । वास्तव में प्रेरक निमित्त नहीं । उनके निामतमात्र है ऐसा कहने का यही तात्पर्य है। ___"हम पहिले प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति स्वकाल ( समर्थ उपादानके व्यापार क्षण ) के प्राप्त होनेपर होती है यह लिख आये हैं। इसलिये यहां पर संक्षेपमें उसका भी विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । यह तो सुनिश्चित है कि प्रत्येक कार्यका स्वकाल होता है। न तो उसके पहिले ही वह कार्य हो सकता है और न उसके बाद ही। जो जिस कार्यका स्वकाल होता है उसके प्राप्त होनेपर अपने पुरुषार्थ ( वलवीर्य ) द्वारा वह कार्य होता है । और अन्य द्रव्य जिसमें उस कार्यके निमित्त होनेकी योग्यता होती है, निमित्त होते हैं। प्रत्येक भव्य जीव का मुक्ति लाभ भी एक कार्य है अतः उसका भी स्वकाल है उक्त । नियम द्वारा उसीकी स्वीकृति दीगई है । केवल यह वात हम तर्कके वलसे कह रहे हों ऐसा नहीं है । क्योंकि कई प्रमुख आचार्योंके इस सम्बन्ध में जो उल्लेख मिलते हैं उन से इस
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