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जैन सत्त्व मामांसा की
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मिलनेसे ही कार्यकी सिद्धि होती है। अन्यथा नहीं । यह अटल नियम है। . . अनुकूल उपादान. अनुकूल निमित्त और प्रतिकूल निमित्तका प्रभाव इन तीनकारणोंके मिलने पर ही कार्यनिष्पत्ति होती है इनमें यदि एक भी प्रतिकूल रहै तो कार्योत्पत्ति नहीं होती । जीसे रोगी पुरुष रोगसे दुःखी होरहा है तो उम रोगीको अंतरंग उपादान कारण असाता वेदनी कर्मका नो क्षयोपशम अनुकूल हो तथा उस रोगकी दगई भी रोगनाशक अनुकूल, तथा कुपथ्यका अभाव यह तौन कारण मिलनेसे ही वह पुरुष जो रोगग्रसित था उसका रोग दर होसकता है यदि इन तीन कारणोंमें से एक भी कारण अर्थात् कुपथ्य सेवनका अभाव न होनेसे भी उसका रोग उपादाननिमित्त अनुकूल होनेपर भी नष्ट नहीं होसकता । अथवा मंसारी जीचोंके अन्तरंग सातावेदनीका उदय तथा वाह्य इष्ट मामिग्रीका निमित्त अनुकूल होनेपर भी यदि अनिष्ट संयोगका अभाव न हो तो कोई भी संसारी जीव सुखी नहीं होसकता । इसलिये बाधक कारणका अभाव होना भी कार्योत्पत्तिमें निमित्त कारण पड़ता है। अतः । उसके सद्भावमें कार्योत्पत्ति नहीं होती यह अटल नियम है । इसी कारण सव ही प्राचार्योने एकस्वरूपसे इसवातको घोषित किया
___"मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम ___ यदि इन कर्मोके अभाव विना भी केवलज्ञानकी उत्पत्ति आप जैसे मानते हैं उपादानकी योग्यतासे ही होजाती है तो आचार्याने क्या यह भूठा प्रतिपादन किया है ? कभी नहीं | उपादानकी योग्यता भी वाह्यनिमित्तोंके अनुसार वनतो है इसवातको हम सप्रमाण आगे स्पष्ट करके दिखलावेगे।
आपने जो यह अभावकारणको न माननेमे खरविषाणका
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