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जैन तत्व मीमांसा की
जड और आत्मा दोनों पराधीन कहलायेंगे। आत्मधर्म अंक ६ वर्ष १ पृष्ठ १२६.
"ज्ञान इंद्रियोंकी सहायता से नहीं जानता है यदि यह माना जाय कि ज्ञान इन्द्रियसे जानता है तो वह मिथ्याज्ञान होगा क्योंकि इस मान्यतासे निमित्त उपादान एक होजाता है, आ० धर्म पृ० ४३ अं० ३ वर्ष १
"केवलज्ञान कभी भी पूर्णतया आवृत ढका हुआ नहीं होता अर्थात् केवलज्ञानका एक भाग तो जीवको चाहे जिस अवस्थाके समय भी खुला होता है । मतिज्ञान केवलज्ञानका अंश होनेसे अंश प्रत्यक्ष है वह अंशी भी प्रत्यचा ही हैं। इस न्यायके अनुसार मतिज्ञानमें केवलज्ञान प्रत्यक्ष ही है ।
आधा० पृष्ट १११ अंक ७ वर्ष २
इसी प्रकार आप भी कहते हैं कि लडकोंके पढने में पास होने में पास नहीं होने में उनके ज्ञानावरणी कर्मके क्षयोपशमका कारण नहीं है । उसमें लडकोंकी योग्यता अयोग्यता का ही कारण है। जैन तत्त्वमीमांसा पृष्ठ १५०
केवलज्ञानकी उत्पत्ति में मोहादिक कर्मोंका क्षय कारण नहीं | क्योंकि जो ज्ञानावरणादिरूप जो कर्मपर्याय है उसके क्षयसे उसकी उत्तर कर्मरूप पर्याय प्रगट होगी कि जीवकी केवलज्ञान पर्याय प्रगट होगी।
पृष्ठ १६
आपके कहनेका सारांश यह है कि नाश तो कर्मोंका
हुआ
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