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जैन तत्त्व मीमांसा की
कैसे अटके ! ताते कर्मके निमित्तते केवलज्ञानका अभाव ही है। जो याका सर्वदा सद्भाव रहे तो यां को पारणामिक भाव कहते सा यह तो बाकि है । यो ज्ञानकी
अनेक अवस्था मतिज्ञानादिरूप वा केवलज्ञानादिरूप हैं । सो ए पारणामिक भाव नांहीं नाते केवलज्ञान का सर्वदा सद्भाव न मानना ।
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इस कथनसे मतिश्र नज्ञान की केवलज्ञानका अंश मानना मिथ्या है। तथा यह भी मान्यता मिश्रया है कि शास्त्रस्त्राध्यायसे. ज्ञानकी वृद्धि नहीं होती एवं गुरु भी सम्यक्त्वोत्पत्ति में निमित्तकारण नहीं है
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यदि ऐसा ही है तो शास्त्रस्वाध्याय करना तथा गुरुमुग्वस) उपदेश सुनना व्यर्थ ठरेगा। जो लोग सोनगढ़ जा जा कर कनजीका उपदेश सुनते हैं उनको मनाई क्यों नहीं की जाती ? किन्तु हाथी के दान्त खानेके और होन हैं और दिखाने के और होते है।
शास्त्र स्वाध्यायके विना वस्तु स्वरूप समझ आता नहीं वस्तुस्वरूप समझे बिना अज्ञानता दूर होती नहीं, अज्ञानता दूर हुये विना जीव मोक्षमार्ग से लगता नहीं इसलिये शास्त्र पढना पढाना अकिंचित्कर नहीं है। सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त करने के लिये शास्त्र पढना पढाना परम हितकर इसी ध्येयस गणधर भगवान ने भगवानकी वाणाको चार अनुया गोंमें विभाजित कर जीवीके कल्याणकी भावनासे शास्त्रांकी रचना की है। इसको अप्रयोजनीभूत कैसे मान लिया जाय । स्व पं० टोडरमलजी मोक्षमार्गप्रकाशक में कहते हैं कि
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