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जैन तत्त्व मीमांसा की
आत्मा असंख्यात प्रदेशी है तो भी कर्मों के निमित्तसे संकोच विस्तार रूप सदा परिणमन करता रहता है। जब कर्म का सम्बन्ध छूट जाता है तब संकोच विस्ताररूप होना भी छूट जाता है । यह जीव जिस शरोरपे सिद्ध होता है उभ शरीरके प्रमाण प्रदेश सब स्थिर हो जाते हैं । यह कर्मोके निमित्तका ही कारण है । कर्मोंके निमित्त से अनादि कालसे यह तीव निगादमें पडा रहा, वहांसे निकलकर चारोंगति रूप समाग्में परिभ्रमण करके फिर भी निक्षमें चला जाता है । क्या उनमें केवलज्ञान प्राप्त करनेकी और सम्यक्त्व प्राप्त करनेकी योग्यता नही है ? यदि नही है तो फिर नवीन आग्यता कहांसे आयगी ? यदि योग्यता शक्तिरूप मोजूद है तो वह योग्यता व्यक्त क्यों नहीं होती । तो कहना पडेगा कि उस योग्यताके प्रगट होने में कर्मबाधक हैं जैसा कि ऊपरमें उदाहरण सहित सिद्ध किया गया है । इस लिये योग्यता रहते हुये भी वाधक कारण रहते योग्यता का कार्य नहीं होता अतः स्कूल में पढ़ने वाले वाल काका ज्ञानावरणादि कर्मोका क्षयोपशम ममान न होनस बाह्य साधन समान मिलने पर भी समान पढाई नहीं होती । योग्यता भी निमित्तानुसार प्रगट होती है अन्यथा नही । ___ " इस संसार अटवी विषे ममस्त जार है ते कर्मके निमित्त ते निपजै जे नाना प्रकार दुःख दिनकर पीडिन हो रहे है । वहुरि तहां मिथ्या अन्धकार व्यास हो रहा है तांकरि तहां ते मुक्त होने का मार्ग पावते नाही तडफ तडफ ताही दुःखको सहे हैं वहुरि ऐसे जीवनिका भला होनेको कारण तीर्थकर केवली भगवान साही भया सूर्य ताका भया उदय ताकी दिव्यध्वनि रूपी किरणनिकरि तहांते मुक्त होने का मार्ग प्रकाशित किया। जैसे सूर्यके ऐसी इच्छा नाहीं जो मैं मार्ग प्रकासू परन्तु सहजही वांकी किरण
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