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समोक्षा
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इन्द्रिय मन द्वारा जो ज्ञान होय हैं सो तिनकी प्रवृत्ति
युगपत् नांहीं एक काल एक ही ज्ञानसू उपयुक्त होय है । जब यह जीव घटकू' जानं तिसकाल पटकू नाहीं जाने 1 ऐसे क्रमरूप ज्ञान है !
यदि इस मति ज्ञानको केवलज्ञानका अंश माना जाय तो केवलज्ञान तो चाविज्ञान है इसलिये वह सकल प्रत्यक्ष है और मति अज्ञान क्षयोपशम ज्ञान है इसलिये वह इन्द्रिय और मनके द्वारा क्षयोपशम अनुसार होता है इसलिये मतिश्रत ज्ञानको केवलज्ञानका अंश मानना सर्वथा आगम विरुद्ध है । इस वातको स्पष्ट करते हुये स्व० पं० टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा ! देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २७४
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बहुरि आपके केवलज्ञानादिक का सद्भाव माने सो आपके तो क्षयोपशम मति श्रतादिज्ञानका सद्भाव हैं क्षायिकमावतो कर्मका क्षय भये कहिये | यह भ्रमते कर्मका क्षय भये विना ही क्षायिकभाव माने सो यह मिथ्यादृष्टि है। शास्त्रांविषे सर्व जीवनका केवलज्ञानस्वभाव का है सो शक्ति अपेक्षा कला है सर्व जीवनिविषे केवलज्ञानादिरूप होनेकी शक्ति है। वर्तमान व्यक्तता तो व्यक्त भये ही कहिये । कोऊ ऐसा माने है — आत्मा के प्रदेशविषे तो केवलज्ञान ही हैं। ऊपर आवरणते प्रगट न होय है सो यह भ्रम है। जो केवलज्ञान होय तो वज्रपटलादि आडे होते भी वस्तुको जाने । कमके आडे आये
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