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जैन तत्त्व मीमांसा की
चोथे गुणस्थानसे लेकर भातवे गुणस्थान तक जो धर्मध्यान होता है वह व्यवहार ही स्वरूप ही है क्योंकि इन गुणस्थानोमें सावल. म्बन धर्मध्यान ही होता है निरालंबन नीं। इन गुणयानों में भगवान जिनेंद्र देवकी आज्ञानुसार देव पूजादि गृहस्थोंके षट्कम, प्रतिक्रमणादि मुनिराजोके षट्कर्म आदि क्रियायें सब आज्ञाविचय धर्मध्यान में ही गर्भित हैं। जो व्यवहार स्वरूप है। तथा अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय धर्मध्यान है वह भी सावलम्बन धर्मध्यान है। इसलिये व्यवहारस्-रूप है और यह सव धर्मध्यान मोक्षका हेतु है 'परे मोक्षहेतू' ऐसा सूत्रकार का कहना है । अतः व्यवहार धर्म का भी लोप होगा तथा दान पूजा तीर्थयात्रा जप तप आदि सव ही व्यवहार धर्मका लोग करना पड़ेगा जैसा कि कानजी स्वामी दान पूजा तीर्थ यात्रादिकको संसारका कारण मानते हैं। किन्तु यह संसारका कारण नहीं यह धर्मध्यान में गर्मित है इसलिये मोक्षके हेतु हैं । ____ परमुत्तरमन्त्यं तत्सामीप्याद्ध म्य॑मपि परमित्युपचर्यते द्विवचनसामाद् गौणमपि गृह्यते । परे मोक्षहेतू इति वचनात्पूर्वे आतरोद्रे संसारहेतू इत्युक्त भवति ।
पूज्यपादस्वामीके इन वचनों से धर्मध्यान मोक्षके ही हेतु है संसार का हेतु आतं और रौद्र ध्यान है धर्मध्यान नहीं । अतः व्यवहार धर्मका लोप से परमार्थ की सिद्धि तीनकाल में न हुई, और न होगी न है। "ज्यों नर कोऊ गिरे गिरिसों
तिहि होई हितू जु गहे दृढ वाही।
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