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१६४ जैन तत्त्व मीमांसा की स्यादवादके महलमें"
___-पुन्यपापएकत्वकरण अधिकार व्यवहारका लोप मोक्ष प्राप्तिके पहिले नहीं होता क्योंकि विना संयम धारण किये तो मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती तथा
संयम है सो व्यवहार है वह दो प्रकारका है एक सागार दूसरा . अनगार । सागार संयम समन्य है और निरागार परिग्रह रहित
संयम है । सोही कुन्द कुन्द स्वामीने चारित्र प्राभृत में प्रगट किया है।
"दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे निराधारं । सायारं सग्गंथं परिग्गहरहियं खलु निरायारं २० गाथा
सागारसंयमका दर्जा या स्वरूप "दसवयसामाइय पोसह सचित्तरायभरोय । वंभांरपरिग्गह अणुमण उदिड देसविरदो य" २१ इसको कुन्दकुन्दस्वामी ने श्रावक धर्म बोलकर घोषित किया है जो व्यवहार स्वरूप है।
"एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं मुद्ध संजम चरणं जइधम्म निक्कलं वोच्छे” २६ इसके आगे अनगार धर्मका निरूपण किया है वह भी व्यवहार स्वरूप ही है।
"पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविंसकिरियासु । पंच समिदि त्तयगुत्ती संजमचरणं निराया" २७
अर्थात् पांचों इन्द्रियोंको वश में करणा पांच महाव्रतोको धारण करना पचीस क्रियाओंका पालन करना, पांच समिति तीन गुप्तिका पालन करना यह अनगार (मुनियोंका) चारित्र है।
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