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जैन तत्त्व मीमांसा की
क्योंकि उस का उपादान कारण आत्मा ही है वाह्य द्रव्य नहीं वाह्य द्रव्य तो वाह्य ही है वह केवल निमित्त कारण | अतः निमित्त कारणां कोई उपादान कारण न मान बैठे इसलिये वाह्य निमित्त कारणों को आत्मस्वरूप से भिन्न मनाने केलिये व्यवहारको हेय बतलाया है, न कि व्यवहार के साधन बिना भी आत्मोपलब्धि होजाती है इसलिये व्यवहारको हेय बतलाया है। आत्मोपलब्धि विना व्यवहारके होती नहीं, यह नियम है। इस. कारण आचार्योंने कारणका कार्य में उपचार कर व्यवहारका उपादेय भी बतलाया है। देव शास्त्र गुरु यद्यपि श्रात्मासे भिन्न हैं परस्वरूप हैं तथापि उनके निमित्तसे परणामों में विशुद्धि
कर परमार्थ की सिद्धि होजाती है इस कारण देव शास्त्रगुरु पर होनेपर भी उपादेय हैं परमार्थम् रूप मोक्षमार्ग उन्ही देवशास्त्र गुरुके द्वारा उपदिष्ट है अतः उनके बताये हुये मोक्षमार्ग में चलनेसें ही इस जीव की परमार्थरूप सिद्धि होता है और उस मोक्षमार्ग में चलना यही तो व्यवहार है। उस मोक्षमार्ग में गमन किये विना क्या किसी जीवने मोक्षस्वरूप परमार्थ की सिद्धि की है ? कदापि नहीं फिर उस मोक्षमार्ग में गमन करने रूप व्यवहार का लोप करनेसे परमार्थकी सिद्धि का आप जो स्वप्न देखते हैं वह स्वप्रमात्र है मिथ्या है। क्योंकि स्वप्नमें देखो हुई वस्तु आंख खुलने पर ( निद्रा दूर होने पर ) अदृश्य हो जाता है उसका अस्तित्व कुछ भी दिखाई नहीं देता। उसी प्रकार व्यवहार के लोप में परमार्थकी सिद्धिका श्रापका स्वप्न निःसार है। आप की मोहरूपी निद्रा दूर हो जाने पर आपको भी व्यवहारके ले प में परमार्थका सिद्धिका अस्तित्व दिखाई नहीं पड़ेगा
"प्रत्येक द्रव्यकी अपनी प्रत्येक समयकी पर्याय अपने परिणमन स्वभावके कारण होनेसे क्रम नियमित
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