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जैन तत्त्व मीमांसा की
रचना उसको जिनराजका कहा हुआ है ऐसा मानकर जो श्रद्धान करता है और उसी के अनुसार वस्तुम्ब रूपया प्रतिपादन करता है वहीं सम्यग्दृष्टि है।
व्यवहार धर्मकी पुष्टि करते हुये कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि दान और पूजा करनेवाला आव त्रिलोक पूज्य होना मोक्षसुख की प्राप्ति कर लेता है । देखो रयणसार
"पूयाफलेण तिल्लोए सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो । हाणफलेग तिलोए सारसुहं सुजदे मियदं" ||१४|| "दिपणाइ सुपत्तदाणं विसेमतो होइ नोगसग्गमही। शिव्याणसुहं कमसो सिद्दिष्टुं जिनवंरिदेहिं । १६ ।।
"खेत्तबिसेसकाले बविय सुवीयं फलं जहा विउलं । होइ तहा तं जाणइ पत्तविसेसेसु दाग फलं" ॥१७॥ "इह णियसुवित्तवीयं जो बबइ जिणुत्तमत्त खेत्तेसु । सो तिहुवणरज्जफलं भुजदि कल्लाण,पंचफलं" ।१८॥ कुन्दकुन्दस्वामी कहते है कि इस व्यवहारधर साधन जो नहीं करने हैं वह पतंगकी तरह लोभकषायरूपी अग्निमें जलकर भस्म हो जाते हैं : वह बहिर आत्मा है। "दाणु ण धम्मु का चागुण भोगु ण वहिरप्पजो पयंगो मो लोहकमायग्गिमुहे पडिउ मरिउ ण संदेहो" ॥१२॥
रयणसारे दानं न धर्मः न त्यागी न भोगो न बहिरात्मा यः पतङ्गः स लोभकषायाग्निमुखे पतितः मृतः न मन्देहः ।।
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