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है । इसको सर्वथा हेय समझकर जो छोड वेठते हैं वे संसारमे घोर दुःखाको भोगतेहुये परिभ्रमण करते हैं ऐसा आचार्योंका कहना है। “खय कुट्ठ मूल सूलो लूय भयंदर जलोदर खिसिरो। सीदुराह वाहिराई पूजादाणंतराय कम्मफलं" ३७ "गरइ तिरियाइ दुरई दरिद वियलंगहाणिदुक्खाणि । देव गुरु सुत्थ बंदण सुयभेय मझाइ दाणविषणफलं ३७
रयणसारे अर्थात् दान पूजा स्वाध्याय बन्दना आदि व्यवहारधर्मको हेय वतलाकर उमका निषेध करना विन करना उपरोक्त दुःखोंका कारण हे एसा कुन्दकुन्द स्वामीका कहना है । वे बोधप्राभूतमें कहते हैंमो देवो जो अत्थं धम्म कामं सुदेइ णाणं च । सो देइ जस्म अत्थि द अत्थो धम्मो य पच्चज्जा २४
-बोधप्राभृते ___टीका--- स देवो यो ऽर्थ धन निधि रत्नादिकं ददाति धर्म चारित्रलक्षणं दयालक्षणं वस्तुस्वरूपमात्मोपलब्धिलक्षणमुत्तमक्षमादिदशभेदं सु ददाति । मुष्टु अतिशयेन ददाति । काम अर्धमंडलिक मण्डलिक महामण्डलिक वलदेव वासुदेव चक्रवर्तीन्द्रधरणेन्द्रभोगं तीर्थकरभोगं च यो ददाति म देवः सुष्ठु ददाति ज्ञानं च कंवलं ज्योतिः ददाति । स ददाति यस्य पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते 'असत्कथं दातु समर्थः यस्यार्थो वर्तते सोऽर्थ ददाति यस्य धर्मो वर्तते स धर्म ददाति । यस्य प्रवज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभूतां प्रव्रज्यां ददाति यस्य सर्वसुखं वर्तते स सर्वसौख्यं ददाति ।
ऐसा ही अन्य प्राचार्यों का कहना है ।
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