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जैन तत्त्व मीमांसा की पच्छा दच्चेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए" ७३ __टीका-भावेन परमधर्मानुरागलक्षणजिनसम्यक्त्वेन भवति कीडशो भवति ? नग्नः वस्त्रादिपरिग्रहरहितः कि कृत्वा पूर्व मिथ्यात्वादींश्च दोषांस्त्यक्त्वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणास्रवद्वाराणि त्यक्त्वा । पश्चात् भावलिङ्गधरणादनन्तरं मुनिदिगम्बरः प्रगटयति स्फुटीकरोति । किं तत् ? लिंगं जिनमुद्रां कया ? जिणाणाए जिनस्याज्ञया जिनसम्यक्त्वेन सम्यक्त्वश्रद्धानरूपेणेति वीजांकुरन्यायेनोभयं संलग्नं ज्ञातव्यं । भावलिंगेन द्रव्यलिङ्ग द्रव्यलिगेन भावलिंगं भवतीत्युभयमेव प्रमाणीकर्तव्यं एकान्तमतेन तेन सर्व नष्ट भवतीति वेदितव्यं । अलं दुराग्रहेणेति । __ अर्थात द्रव्यलिंगके विना भावलिङ्ग होता नहीं और भावलिंग के विना भी केवल द्रव्यलिंग से परमार्थकी सिद्धि नहीं होती इस से यह स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि व्यवहार को छोडकर निश्चयसे परमार्थ सिद्ध नहीं होता इसलिये निश्चय या परमार्थ सिद्ध करनेके लिये व्यवहारको शरण लेनी पड़ती है । क्यों क इस के विना परमार्थ सिद्ध नहीं हो सकता यह नियम है । इसलिये व्यवहारको भी परमार्थकी सिद्धिकेलिये करते रहना परमावश्यक
'पापारंभणिवित्तीपुरणारंभे पउत्तिकरणं पि । गाणं धम्मझाणं जिणभणियं सच जीवाणं " १७
रयणसारे । कुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं कि पापारंभकी तो निवृत्ति कर के
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