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जैन तत्त्व मीमांसा की
परमार्थ स्वरूप समझकर व्यवहार में ही तल्लीन रहता है वह भी बहिरात्मा है इसलिये एकको छोडकर एक की सिद्धि नहीं होती यह अटल नियम है । अतः अपने पदस्थ के अनुसार परमार्थकी सिद्धिकेलिये व्यवहारका साधन करते रहना चाहिये । यदि ऐसा न माना जायगा और व्यवहारको हेय ही ममझा जायगा तो फिर व्यवहारधर्मको परंपरा मोक्षका कारण वताकर उसको करने का उपदेश आचार्योंने किसलिये दिया है ! इसलिये यही मानना उचित है कि ___ यथायोग्य क्रिया करे ममता न घर रहे सावधान ज्ञानध्यानकी टहलमें । तेई भवसागरके ऊपर कै तिर जीव जिनको निवास स्यादवादके महल में ।
श्रावकोंके करने योग्य त्रेपन क्रियाश्रीका वर्णन सर्वज्ञ देवने ही तो किया है ! वह व्यवहार स्वरूप नी तो और क्या है ?
"गुणवयतबसमपडिमादाणं जलगालगं अणथमिणं दसणणाणचरिच किरिया तेवणावया भणिया १५३
फिर इसके करनेका निषेध कैसा? अथवा इसके न करने से परमार्थकी सिद्धि कैसी ! जिस प्रकार श्रावकों के पालन करने योग्य त्रेपन क्रियायोंका निरूपण किया है उसीप्रकार मुनिराजों के लिये भी अठाईस मूलगुण आदि पालन करने का आदेश किया है जो व्यवहार स्वरूप है जो छठे मातवे गुणस्थान नक अखंडित स्वरूप है। फिर अनतअवस्था में उसके करनेका निषेध कैमा ? क्या रोगका निदान कर रोगका निश्चय कर लेनेसे और इस दवासे यह रोग नष्ट होगा ऐसा जान लेने मात्रसे रोग नष्ट होता है ? नहीं, रोग नष्ट करने के लिये दवाका प्रयोग करना पडेगा इसी प्रकार जिन जिन कारणोंसे संसार परिभ्रमणका रोग इस जीवको हुआ
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