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जैन तत्त्व मीमांसा की wwwwwwwwwwwwwwr................................... गलती स्वीकारकी तब जनता शान्त हुई । जव आपको उसमें सफलता न मिली तब आप कानजीके मतके समर्थन में "जैनतत्त्वमीमांसा" लिखकर व्यवहार धर्मका लोपसे परमार्थकी सिद्धि सिद्धकरनेका प्रयत्न किया । आप तो चाहते हैं कि "न रहै वास्स और न वजे वांसुरी" अर्थात् न रहै व्यवहारधर्म और न र है किसी प्रकारका रोकटोक पर अभी ऐसा होना बहुत दूर है । अभी तो पंचमकालका ढाई हजार वर्ष ही वीता है।
इसलिये जब तक शुद्धोपयोगकी दशाको यह जीव प्राप्त न करसके तवतक शुद्धोपयोगकी प्राप्तिका उपाय करते रहना यही जिनेन्द्र भगवानका आदेश है । अतः इसका लोप कैसे किया जा . सकता है ? आचार्य तो यहांतक कहते हैं कि जो धर्मध्यान सावल. म्बन है वह भी देशवती श्रावकोंके मुख्यतया नहीं होता। देखो भावसंग्रह। "कहियाणीदिद्विवाए पडुच्च गुणठाण जाणि झाणाणी । तम्हा स देसविरयो मुक्खं धम्म ण झाएई ॥ ३८३ ___ यह धर्मध्यान मुख्यपने देशविरत आवकोंक क्यों नही होता इसका कारण यह है कि गृहस्थोंके सहा काल वाह्याभ्यन्तर परिग्रह परिमितरूपसे रहते हैं। तथा आरंभ मा अनेक प्रकारके बहुतसे होते हैं इसलिये वह शुद्ध आत्मा का ध्यान कभी नहीं कर सकता है। 'किं च सो गिहवतो वहिरंगंतरगंथपरिमिओ णिच्च। बहुआरंभपउत्तो कह झायइ शुद्धमप्पाणं " ३८४
इसलिये गृहस्थोंका धर्मध्यान देवपूजादि षट्कर्मो का करना
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