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जिन तत्त्व मीमांसा की
आत्मख्याति है सोही सम्यग्दर्शन है ऐसे यह समस्त कहना निर्दोष है, वाधा रहित हैं।
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( पं० जयचंदजी कृत भाषा टीका )
सारांश यह है कि नव तत्त्वरूप अवस्था जीवकी जीव और अजीब के मिलापत्रे होती है वे भी व्यवहारदृष्टिसे भूतार्थ हैं सत्यार्थी है क्योंकि इस नव तत्त्वरूप अवस्था का ज्ञान हुये दिना Raat प्राप्ति नहीं होती इसलिये भेदरूप अवस्थाका ज्ञान होनेसेही इन नव तत्त्वमें एक जीव तत्त्वही प्रकाशमान दृष्टिगोचर होता है वही सम्यग्दर्शन है अतः नत्र तत्त्व रूप अवस्थाका ज्ञान व्यवहार नयसे ही होता है इसलिये व्यवहार नय भी भूतार्थ है सत्यार्थ है, तीर्थरूप है ।
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ववहारस्स दरीसामु एसो वरदो जिनवरेहिं । जीवा एदे सब्वे अवसारणादश्रो भावाः । ४६ ।
-- जीवाजीवाधिकार
टीका -- सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीव इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभृतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनं । व्यवहारी हि व्यवहारिणाम् म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोपि तीर्थप्रवृत्ति निमित्तं दर्शयितु न्याय्य एवं तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् । सस्थावराणां भस्मन इव निःशंकमुपमर्दनेन हिंसाभावाद् भवत्येव वन्धस्याभाव: तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो वध्यमानो मोचनीय इति
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