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समीक्षा
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से चारों गतियों में यह जीव उत्पन्न होता रहता है, इमीका नाम संसार है। इस संसार परिभ्रमणका कारण कर्म है । जैसा कर्मका उदय होता है उसी के अनुसार गति आयु शरीर आदि अवस्था प्रान हो जाती है।
"जब जाको जमो उदै तब सो है तिहिथान । शक्ति मरोर जीवकी उदय महावलवान,
जसे गजराज परयो कर्दमके कुण्ड वीच. उद्दिम अरूढे प न छूटे दुख दंद सों जैसे लोह कंटककी कोरसों उरभयो मीन पंचत असाता लहै सात लहै संदसों। जसे महाताप सिखाहिंसो गरास्यो नर तके निजकाज उठ सके न सुछंदसो । तसे ज्ञानवत सव जानै न बसाय कछु वन्ध्यों फिरे पूर्व कर्मफल फंदसों
समयसारवन्धद्वार इसलिये कर्मवन्ध का कारण आत्माका रागद्वेष परिणाम है और रागद्वेष होनेका कारण पूर्व कृत कर्म का उदय है । उस उद्यानुसार यह जीव गति योनि को प्राप्त होता है।
जीवपरिणामहेदु कम्म पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो विपरिणमदि ।८६।
-समयसारका कर्माधिकार
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