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समीक्षा
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उवओगस्स अणाई परिणामा तिषिण मोहजुत्तस्स निच्छत्त अण्णाणं अविरदिभावो य णादन्यो ६७
अर्थात उपयोग के अनादित्ते लेकरि तीन परिणाम हैं सो बह अनादिहीते मोहयुक्त है ताके निमित्तते मिथ्यात्व अज्ञान अविरति भाव ए तीन रूप जानने । भावार्थ-आमा के उपयोगमें तीन प्रकारके विकार परिणाम अनादि कर्म के निमित्तते हैं। ऐसा नहीं है जो पहिले शुद्ध ही था यह अव नवीन हुआ है ऐसा होय तो सिद्धनके भा नवान भया चाहिये किन्तु ऐसा होता नहीं। क्योकि उनके विकाररूप होनेका कारण कर्म रूप निमित्त रहा नाही। अतः ससारी जीवोंको भी त्रिकाल शुद्ध माननेवालोको उपरोक्त समय प्राभूत के कथन से अपनी भूल धारणाको दूर कर देनी
चाहिये।
एदेसु य उवओगो तिविहो शुद्धो मिरज शो भावो ।
जं सो करेदि भान उवओगे तस्स सो कत्ता ६८ अर्थात् पूर्व कहा है जो परि में सो कर्ता है । सो इहां अज्ञानरूप होय उपयोग परिणम्या, जिस रू५ ५.: 'सका कर्ता फह्या । शुद्धद्रव्याथि- नय कौर श्रम: का है नाहीं । इहां उपयोग को कर्ता जानना । अतः उपयोग और आत्मा एक ही वस्तु है तातै आत्मा ही कर्ता कहिये। जं कुणदि भावमादा कचा सो करोदि तस्स भाबस्त ।
कम्मचं परिखमदे तसि सयं पुग्गलं दम् १९
अर्थात् जैसे साधक जो मंत्र साधनेवाला पुरुष यो विष प्रकारका ध्यान रूप भावकरि भापही करि परिणमता संता विसध्यानका कता होष है तथा समस्त जो तिस साधकके पापने
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