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समीक्षा
१३६
"पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावा पुग्गलकम्मणिमि तह वेददि अपणो भावं" ६४ पुद्गलकर्मनिमित्त यथात्मा करोति आत्मनः भावं पुद्गलकर्मनिमित्त तथा वेदयति आत्मनो भाव"
अर्थात् समय प्राभृत में कुन्द कुन्द स्वामीने. पहली गाथामें यह दिखाया कि जीव के रागद्वोष परिणामों के निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप होकर परिणमता है । तथा पुद्गल कर्माके निमित्तसे जीव रागद्वेष होकर परिणमन करता है । तथा दूसरी गाथा में यह दिखाया है कि इस परिणमन स्वभाव में एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्य में संक्रमण नहीं होता है इस तीसरी गाथामें यह दिखाया है कि द्रव्यर्मके निमित्तस आत्मा किस प्रकार उसीके फलको भोगता है । सारांश यह है कि कर्मोके निमित्त से जो जीव के रागद्वेष परिणाम होते हैं और जीवके रागद्वेष परिणामों से पुद्गल कर्म रूपसे परिणमन करता है इस परिणमन में कोई यह न मान बैठे कि पुशल का गुणधर्म जीव में प्राजाता है और जीवका गुणधर्म पुद्गल में चलाजाता है । इस कारण उन्हें स्पष्ट करना पड़ा है कि इस विभाव परिणमन में किसी। का गुण धर्म किसी में नहीं जाता, अपने अपने में ही रहता है।
जीव और पुद्गल के परस्पर निमित्त नैमित्तिक परिणमन में एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्य में आजाता है ऐसा भ्रम क्यों होजाता है इस का भी कारण यह है कि मिथ्यात्वभाव भी दोय प्रकारका है एक जीव मिथ्यात्व दूसरा अजीव मिथ्यात्व इसीप्रकार अज्ञान भी दो प्रकारका है एक जीव अज्ञान दूसरा अजीव अज्ञान, तेसेही अविरति योग मोह क्रोधादिकषाय जीव अजीवोंके भेदसे दोय होय भेदरूप राय ही भाव हैं। अर्थात् मिथ्यात्वादि कर्मकी
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