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समीक्षा
इस कथनसे यह वात स्पष्ट होजाती है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कर्ता कदाचित् भी नहीं है अतः एक द्रव्यके दूसरे व्यका कार्य कारण भात्र माननेसे अथवा संयोग सम्बन्ध माननेसे अथवा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध मानने से एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्यमें सक्रमण ह जाता है ऐसी धारणासे संयोगसम्बन्धका कार्यकारणभावका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धका आधाराधेयमाबका एक द्रव्यके साथ दूसरे द्रव्यका सर्वथा निषेध करना आगम विरुद्ध है क्योंकि मिथ्यात्व (दर्शनमोहनीय) कर्मके सम्बन्धसे यह आत्मा अनादिकाल होसे अज्ञानी वनाहुअा है । तथा सप्त तत्त्व नौ पदार्थोंकी जीव अजीवके सम्बन्धसे ही व्यवस्था होती है और इसको समझनेसे ही मम्यक्त्यरूप श्रद्धान होता है। जो मोक्षका कारण है । गुणस्थान मार्गणा, श्रादिकी व्यवस्था भी जीव पुद्गल कर्मके संयोगसे ही वनती है जो यथार्थरूप है । अथवा मति अत आदि ज्ञानांकी संख्या कर्मसंयोग से ही बनीहुई है । इनमें कर्मका निमित्त न माना जायगा तो एक भी व्यवस्था नहीं बनेगी। अर्था कर्मसम्बन्धके विना गुणस्थान मार्गणा सप्ततत्त्व नव पदार्थ मतिअतादिज्ञान सम्यक्त्व मोक्ष आदि एक भी कार्य नहीं होगा। जो आगम सिद्ध है।
"भूदत्थेणाभिगदा जीवा जीवा व पुण्णपाव च। आसवसंवरणिज्जरवन्धोमोख्खो य सम्मत्त ॥१३॥
--समयप्राभृत अर्थात् जीवादि नद तत्त्व हैं ते भूतार्थनयकरि जाणे संते सम्यग्दर्शन ही है यह नियम कह्या । जाते ये नवतत्त्व जीव-अजीव पुण्य पाप आस्रव संवर निर्जरा वन्ध मोक्ष
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