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जंन तत्त्व मीमांसा की
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अर्थात् जा कारगते ए अध्यवसान आदि समस्तभाव ते तिनिका उपजावनहारो आठ प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म है । सो समस्त ही पुद्गलमय है ऐसे सर्वज्ञका वचन है । तिस कर्मका उदय हदकू पहुंचे ताका फल है सो यह अनाकुलस्वरूप जो सुख नामा आत्मा का स्वभाव ताते विलक्षण है श्राकुलतामय है । ताते दुःख है तिस दुःखके माहिं आय पडे जे अनाकुलता स्वरूप अध्यवसान
आदिक भाव ते भी दुख ही है । ताते ते चैतन्य तें अन्वय का विभ्रम उपजावे है तोऊ ते श्रात्माके स्वभाव नाही हैं पुद्गल स्वभाव ही है।
सारांश यह हैं कि जिसप्रकार स्त्री पुरुषके निमित्तसे ( सहयोगसे ) पुत्रकी उत्पत्ति होती है उस पुत्रको कोई पिताका पुत्र कहता है तो कोई माताका पुत्र कहता है । उसी प्रकार द्रव्यकर्मके संयोगसे आत्मामें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है उसको जीवके भाव भी कहा जा सकता है और पुद्गलका भाव भी कहा जा सकता है । क्योंकि दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुआ है । इसलिये दोनोंका कहनेमें यह भ्रम हो जाता है कि एक द्रव्यका दोय कर्ता है । किन्तु वास्तवमें एकद्रव्यका दो कर्ता कभी हुआ न होगा तथा दोय द्रव्य का कर्ता भी एक द्रव्य नहीं होता यह अनादिकालकी मर्यादा है।
"एक परिणामके न कर्ता दाब दोय, दोय परिणाम न एक दरव धरत है । एक करतूति दोय दरव कवहूं न कर, दोय करतूति एकद्रव्य न करत है । जीव पुद्गल एक
खेत अवगाहि दोऊ अपन अपन रूप कोऊ न टरत है। जड परिणामनिको करता है पुद्गल चिदानन्द चेतनस्वभाव आचरत है।
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