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जैन तत्त्व मीमांसा की प्रकृति है वह पुद्गल द्रव्य के परमाणु हैं उनका उदय होनेपर जीवके उपयोग में उसका स्वाद आवे तव तिस स्वादको ही जीव अपना भाव माने । सो यह भ्रम जवतक जीवके भेदविज्ञान नहीं होता तबतक वह दूर नहीं होता । भेदविज्ञान होनेपर वह अजीव भावोंको पुलके भाषजाने और जीवभावको जीवके जाने तव सम्यग्ज्ञान होय । "मिच्छस पुणं दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णायं ।
अविरदि जोगो मोहो कोधादीणा इमे भावा" मिथ्यात्वं पुनविविध जीवोऽजीवस्तथैवाज्ञानं ।
अविरतियोगो मोहक्रोधाद्या इमे भावाः । अर्थात् कर्मके निमित्तसे जीव भावरूप परिणमै है ते तो चैतन्य के विकार है ते जीव है । और पुद्गल मिथ्यात्वादि कर्म रूप परिणमै है ते पुद्गलके परमाणू हैं तथा तिनिका विपाक उदय रूप होय है ते मिथ्यात्वादि अजीव है ऐसे मिध्यात्वादिभाव जीवाजीच भेदकरि दोय प्रकार है इस दोय प्रकारके भेदको विना समझे भ्रमते दोनोंमें एकत्व वृद्धि हो जाती है। इसलिये अशानी जीव अजीवभावों को जीवभाव मानलेते हैं । किन्तु तत्त्वज्ञानीके झान में अजीव के भाव अजीव में भासते हैं और जीव के भाव जीव में भासते हैं।
आचार्य इसका और भो खुलासा करते हैंपुग्गलकम्म मिच्छं जोगो अविरदि अण्णाणमजीव
उवओगो अण्णाणं अविरदिमिच्छत्त जीवो द६६ अर्थात जे मिथ्यात्व योग अविरती प्रज्ञान ए मजीव हैं सो तो पुदल कर्म है । तथा अज्ञान अविरति मिथ्यात्व ए जीव है ते जीवके उपयोग है।
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