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जैन तत्त्व मीमांसा की -rammrrrrrrrrrrrrrrrmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. किन्तु पुद्गलको शुद्ध माननेसे आत्मा विकार उत्पन्न करनेवाला फिर कोई पदार्थ नहीं ठहरता । इस हालतमें क्रोधादिकका हेतु आत्मा हो पडेगा और क्रोधादिभाव आत्माहीका स्वाभाविक गुण ममझाजावेगा परन्तु यह वात आगमविरुद्ध है । इसीवातका और भी स्पष्टो करण आचार्य करते हैं।
"एवं वन्धस्य नित्यत्वं हेतोःसद्भावतोऽथवा । द्रन्याभावो गुणाभावे क्रोधादीनामदर्शनात् " ३६
अर्था-यदि पुद्गलको अनादिसे शुद्ध मानाजाय तो उस शुद्ध अवस्थामें भी उसका आत्मासे सम्बन्ध मानाजाय तो वह वन्ध सदा रहैगा क्योंकि शुद्धपुद्गलवरूप हेतुके सद्भावको कोन हटासकता है, पुद्गलकी स्वाभाविकता है वह सदाभी रहसकती है और हेतुकी सत्तामें कार्यभी रहेगाही यदि वन्धही नहीं मानाजायगा तो ज्ञानकी तरह क्रोधादिक भी आत्माके गुण ठहरेंगे अतः फिर वही दोष जो कि पहले श्लोकमें कह चुके हैं पाता है । तथा क्रोधादिकको आत्माका गुण स्वीकार करने में दूसरा दोष यह भी आता है कि जिन जिन प्रात्माओंमें क्रोधादिकका अभाव हो चुका हैं उन उन आत्माओं का भी अभाव होजावेगा क्योंकि जब कोदिकको गुण माना जायगा तव गुण के अभावमें गुणांका अभाव होना स्वतः सिद्ध है । तथा यह वात देखने में भी आती है कि किन्ही किन्ही शान्त आत्माओंमें क्रोधादिक बहुत थोडा पाया जाता है। योगीश्वरों में बहुत मंद पाया जाता है और वारहवें गुणस्थानमें तो उसका सर्वथा अभावही होजाताहै । इसलिये अशुद्ध पुद्गलका अशुद्ध आत्माकं साथ बन्ध मानना न्यायसंगत है। सारांश
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