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जैन तत्त्वमीमांसा की
"लोकालोकमान एक सत्ता है आकाशद्रव्य, धर्मद्रव्य एकसत्ता लोक परिमित हैं। लोकपरिमाण एकसता है अध मंद्रव्य, कालके अणु असंख्यमता अगणित है। पुदगल शु
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परमाणुकी अनन्त सत्ता, जीवकी अनंतसत्ता न्यारी न्यारो थित है। कोउ सत्ता काहुसो न मिले एकमेक होय सवे असहाय यो अनादि ही की रीत है"
"एही छह द्रव्य इनिहीकी है जगतजाल, तामें पांच जड एक चेतन सुजान है । काकी अनन्तसत्ता काइसों न मिले कोई, एक एक सत्ता में अनंतगुण गान है । एक एक सत्तामें अनन्त परजाय फिर, एक में अनेक इहभांति परिमाण है । यह स्यादवाद यह संतनकी मरयाद यह, सुखोष यह मोक्षको निधान है"
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"साधि दधीमंथन में रस पंथन में जहां तहां ग्रंथन में सत्ता हीको सोर है। ज्ञान मान सत्ता में सुधानिधान सत्तामें सत्ताकी दुरनिसंज्ञा सत्ता मुख भोर हैं। सत्ता स्वरूप मोक्ष सत्ता भूले यह दोष सत्ताके उलंघे धूमधाम चहुँ ओर है सत्ताकी समाधिमें विराज रहै सो ही साहू, सत्तातें निकसि और गहै सोई चोर है ।
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उपजे विनसे थिर रहै यह तो वस्तु वखान । जो मर्यादा वस्तुकी सो सत्ता परमान ॥