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जैन तत्त्वमीमांसा की
कोई अस्वीकार नहीं कर सकता है। इस कार्य कारण भावसे ही इस जीवको बन्धरूप संतति आन्न रूपसे आजतक चली आई है तथा आगे भी जब तक बन्ध विच्छेद न होगा तबतक नवीन नवीन बन्धकी संतति चलती हो जायगी । अर्थात द्रव्यकर्म के उदयमें रागद्वेषरूप जीवकं भाव कर्म और इस राग द्वेष रूपभाव कर्मके निमित्तसे नवान मोका आकर्षण होतहो रहेगा. "दति श्रवसो कहिये जहि पुल जीवप्रदेश महासे । भावित आश्रम कहिये जहि राग विरोध विमोह विकासे । सम्यकपद्धनि सो कहिये जहि दवित भवन व नासे । ज्ञानकलाजगटे जहि स्थानक अंतर वाहिर और न मासे ॥"
नसयसार आन्न्रव द्वापों एम कहा है।
जो तो अविनाश नाही अंतर आत्मा में बारा दोय चरनी। एक नवा एक शुभाशुभकर्मधारा दोका प्रकृती न्यारी न्यारी पर इतना विशेष कर्मधारू पराधीन शकती विविध करनहार दोपहरनहार भौरी
करनी । ज्ञानदा सोक्षरूप मोचकी
मल्लकार
सारांश यह है कि उदयमें गहन रूप जाबके परिणाम होते हैं और रागद्वेष परिधान के निमित्तसे पुकूल कर्म रूप बनकर आत्मा के प्रदेशके चारो तरफ चिपट जाता है । जब तक अष्टकम सर्वथा नाश नहीं होता तब तक आत्मामें ज्ञानधारा और कर्मवारा बनी रहती है। इस कारण अर्हन्त भगवान भी पातिया कर्मो के निमित्त से पूर्णतया स्वतंत्र नहीं है उन्हें भी
विहार करना पड़ता है उपदेश देना पडता है कमीको स्थितिम मानकरने लिये समुद्घात भी करना पड़ता है इसलिये यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि सर्व पदार्थ स्वतंत्र होने पर भी कथंचित् परतंत्र भी है। अत: एस मानने लोक मत से संसार
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