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समीक्षा
...... ..............marma और व्यवहारनयोंको परस्परसापेक्ष न माना जाय एवं केवल निचयनयको या केवल व्यवहारनको हो एकान्तरूपसे पकड कर प्रतिपादन कियाजाय तो वह कथन मिथ्या एवं वस्तुस्वरूपसे विरुद्ध ठहरेगा। क्योंकि वस्तुके एकदेशकोहो एक नय एक समय में जानता है । इसलिये निरपेक्ष नय मिथ्या है । तथा परस्पर सापेक्ष नय निश्चय व्यवहारकी अपेक्षा रखकर वस्तुको ग्रहण करेगा ता समस्त वस्तुस्वरूपका ग्रहण हो जायगा इसीका नाम प्रमाण है । विधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयोः । मंत्रीप्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम्" । ____अर्थात-विधि पूर्वक प्रतिषेध होता है। प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है। विधि और प्रतिषेध इन दोनू की जो मैत्री है वही प्रमाण कहलाता है । अथवा स्व पर को जाननेवाला जो ज्ञान है वही प्रमाण कहलाता है । स्पष्टीकरणअयमोंर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वतस्तस्य । एकविकल्पो नयः स्यादुभयनिकल्पः प्रमाणमिति बोधः ॥
अर्थात-अर्थाकार पदार्थकार परिणमन करनेका नामही अर्थ विकल्प है । यही ज्ञानका लक्षण हैं। वह ज्ञान जब एक विकल्प होता है, एक अंश को विषय करता है तब वह नयाधीन नयास्मक ज्ञान कहलाता है । और वही ज्ञान उभय विकल्प होता है, पदार्थ के दोनों अंशोंको विषय करता है तो वह प्रमाणरूप ज्ञान कहलाता है। अयमर्थो जीवादौ प्रकृतपरामर्शपूर्वकं ज्ञानं । यदि वा सदभिज्ञानं यथा हि सोयं वलावयामशि ।। ___ अर्थात्-ऊपर जो कुछ कहा गया है उसका अर्थ यह है कि ‘जीवादि पदार्थोमे व्यवहार और निश्चयके विचार पूर्वक ज्ञान है वही प्रमाण ज्ञान है अथबा पदार्थमें जो प्रत्यभिज्ञान है वह प्रमाण
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