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समीक्षा
उसे मिथ्याज्ञान कहते हैं । इस प्रकार विषय के भेद से ज्ञान के भी सम्यक और मिथ्या ऐसे दो भेद हो जाते हैं। अतः ज्ञान के समान नय के भी दो भेद सम्यक और मिथ्या रूप होते हैं। ज्ञानं यथा तथासौ नयोस्ति सर्वो विकल्पमात्र स्वात् । तत्रापि नयः सम्यक् तदितरथा स्यान्नयामासः ५६० ५० .. अर्थ--जिस प्रकार ज्ञान है उसी प्रकार नय भी है। अर्थात् जैस सामान्य ज्ञान एक है वैस सम्पूर्ण नयभी विकल्पमात्र होनेसे ( विकल्पात्मक ज्ञान को ही नय कहते हैं ) सामान्य रूप से एक है। और विशेष को अपेक्षा सं ज्ञान के समान नय भी सम्यक न्य और मिया नय ऐसे दोय भेद वाले हैं। जो सम्यक् नय हैं उन्है नय कहते हैं । जो मिथ्या नय है उन्हें नयाभास
दोनों नयों का स्वरूप "तद्गुणसंविज्ञानः सोदाहरणः सहेतुरथ फलवान् । यो हि नयः स नयः स्याद्विपरीतो नयो नयाभासः ।।
५६१ पंचाध्यायी अर्थ-~जो तद्गुण संविज्ञान हो अर्थात् गुणगुणी के भेद पूर्वक किसी वस्तु के विशेष गुणों को उसी में बतलाने वाला हो उदाहरण सहित हो, हेतु पूर्वक हो, और फल सहित, हो वह नय कहलाता है। उपयुक्त बातोंसे विपरीत हो वह नय नयाभास है। फलवत्वेन नयानां भाव्यमवश्यं प्रमाणवद्वियत् । स्यादनयविप्रमाणं स्युस्तदंशत्वात् ।। ५६२ पंचाध्यायी
अर्थ-जिस प्रकार प्रमाण का फलसहित होना परम आवश्यक है। कारण अवयवी प्रमाण कहलाता है उसी का अवयव नय
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