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समीक्षा
११३
स्थापित करना इन सत्र नयोंका काम नहीं है इसलिये इनका विषय भी परमार्थभूत है और इन नयाँका लक्ष्यार्थ भी परमार्थस्वरूप ही है। क्योंकि इन नयाँका होध होनेपर वस्तुस्वरूपका वोध होजाता है।
नैगमादिनयों के विषय में पंडित फूलचन्दजीका जो यह कहना है कि
"उदाहरणस्वरूप पर संग्रहनय के विषय महासत्ता की दृष्टिसे विचार कीजिये। यह तो प्रत्येक आगमाभ्यासी जानता हैं कि जैनदर्शन में स्वरूपसत्ताके सिवाय ऐसी कोई मत्ता नहीं है जो सव द्रव्योंमें तात्त्विकी एकता स्थापित करती हो फिर भी अभिप्राय विशेषसे सादृश्य सामान्यरूप महासत्ताको चैनदर्शन में स्थान मिला
हुआ है । इस द्वारा यह बतलाया गया है कि यदि कोई काल्पत युक्तियों द्वारा जड चेतन सव पदार्थों में एकत्व स्थापित करना चाहता है तो वह उपचरित महासत्ताको स्वीकार करके उसके द्वारा ही ऐसा कर सकता है । परमार्थभूत स्वरूपास्तित्व के द्वारा नहीं | इसप्रकार आगम में इस नयको स्वीकार करनेसे विदित होता है कि जो इस नयका विषय है वह भले ही परमार्थभूत न हो पर उससे फलितार्थरूप में स्वरूपास्तित्वका बोध होजाता है। इसी प्रकार नैगम व्यवहार और स्थूल ऋजु सूत्रय का विषय क्यों उपचारित है इसका व्याख्यान कर लेना चाहिये तथा इसी प्रकार अन्य नयों के विषय में भी जान लेना चाहिये ।" वह उचित नहीं है। कारण
आगम में संग्रह नय का लक्षण ऐसा किया है-अपनी एक जाति वस्तुनिकू अविरोध करिये एक प्रकार पणाकू प्राप्ति करि जिनमें भेद पाईय ऐसे विशेषनिक अविशेष करि समस्तनिकू ग्रहण करे ताकू संग्रह य कहिये । इहां उदाहरण - जैस सत
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