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समीक्षा
"तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभाससंज्ञकाः सन्ति । स्वयमप्पतद्गुणत्वादव्यवहाराऽविशेषतो न्यायात् " ||
५५३ पंचाध्यायी अर्थ-- शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो तद्गुणारोपी नहीं है किन्तु एक वस्तु के गुण दूसरी वस्तु आरोपित करते हैं वे नम नहीं हैं किन्तु नयामास हैं अतः वे व्यवहार के योग्य नहीं है।
शंकाकार फिर कहता है कि
"
" ननु किन्न वस्तुविचारे भवतु गुणी वाथ दोष एव यतः न्यायवलादायातो दुर्वारः स्यान्नयप्रवाहश्च ५५६ पंचा० अर्थ -- वस्तु के विचार समय में गुण हो अथवा दोष हो जो वस्तु जिस रूप में है उसी रूप में वह सिद्ध होगी चाहै उसकी यथार्थ सिद्धि में दोष आवे या गुण । नयों का प्रवाह न्याय बल सं हैं, इसलिये वह दूर नहीं किया जा सकता अतः जीव को वर्णादिमान कहना यह भी एक नय है । इस नयकी सिद्धि में जीव और वर्णादि में एकता भले ही प्रतीत हो परन्तु उसकी सिद्धि आवश्यक है।
प्राप्त हुआ
उत्तर---
सत्य दुवरिः स्यान्नयप्रवाहो यथाप्रमाणाद्वा । दुर्वारश्च तथा स्यात्सम्यङ मिथ्येति नयविशेषशेोषि ।।
मह
५५७ पंचाध्यायी
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अर्थ - यह बात ठीक है कि नय प्रवाह अनिवार्य है परन्तु साथ में यह भी अनिवार्य है कि वह प्रमाणाधीन हो । अन्यथा बह मिथ्या है कुनय हैं क्योंकि कोई नय यथार्थ होता है तो कोई