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जैन तत्त्व मोमांसा का का है । व्यवहार नय को आचार्यों ने उपचरित क्यों कहा है इस बातको पंडितजी भी जानते हैं फिरभी आपने कतिपय नयाभासों का उदाहरण देकर व्यवहार नय को सर्वथा अतद्गुणारोपी ठह रानेका प्रयत्न किया है यह आश्चर्य की बात है । क्योंकि निश्चयं और व्यवहार नय दोनों ही नय प्रमाण के अंश है इसलिये प्रमाणाधीन हैं । अत: जिस प्रकार प्रमाण फलसहित है उसी प्रकार नय भी तद्गुण संविज्ञान उदाहरण सहित हो, हतु पूर्वक हो ओर फलसहित हा वहां नय नय कहलाने के योग्य है किन्तु जिस नय द्वारा जिस वस्तु में जो गुण नहीं है उस वस्तु में दूसरी वस्तु के गुण आरोपित किये जाते हैं वह व्यवहार नय बाहा नहीं, वह नय नहीं, नयाभास है क्योंकि ऐसी नयों द्वारा इष्ट फल की सिद्धि नहीं होतो इसका संस कारण यह है कि पर में एकत्व बुद्धि होने लगती है। यही इस फल का विधात है इस बात को उपर में अच्छी तरह सिद्ध किया जा चुका है। अतः अतद्गुणारोपी नयों का उदाहरण देकर आपने "जैन तत्त्व मीमांसा" की है वह जैन तत्त्वमीमांसा कही न जाकर जैन तत्त्व की अवहेलना कही जा सकती है। __पंडितजी ने जा उपचरित कथन के चार उदाण पेस किये द नयाभासों के क्यों उदाहरण हैं इस बात को हम यहां पर पागम प्रमाण से सिद्ध करके दिखलायेंगे। "अथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराव्यहेतुदृष्टान्ताः । अत्रोच्यन्ते केचिद्रेयतया वा नयादिशुद्यर्थम्" ।
५६६ पंचाध्यायी अर्थ-उपचार नाम वाले उपगर पूर्वक हेतु दृष्टान्तों को ही नयाभास कहते हैं। यहां पर कुछ नयाभासों का उल्लेख किया जाता है इसलिये कि नयाभासों को समझलेने पर उन्हें छोड दिया
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