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जैन तत्व मीमांसा का
अर्थात गुणगुणीके भेदरूप कथन है इसलिये बद वस्तुस्वरूप तो नहीं है क्योंकि वस्तुस्वरूप गुणगुणी अभेदरूप है तो भी उस भेदरूप कथन से परमार्थ स्वरूप वस्तुस्वरूपका बोध होजाता है। यह कथन तद्गुणारोप सुनयका कथन है। क्योंकि सुनयके विना परमार्थभूतवस्तुका बोध नहीं होता । अतः यहां पर ता श्राप उपचरितनय के द्वारा परमार्थभूत अर्थका ज्ञान हो जाता है ऐसा कह पाये हैं। इसके आगे आपने जो उपचरित कथनके च र उदाहरण दिये हैं वे ऊपर में उद्धृत किये जाचके, उनमें "शरीर मेरा है और देश धन तथा स्त्री पुत्रादिक मेरे है" आदि इस उपच रितकथनसे परमार्थरूप अर्थका बोध कैसे होगा ? नहीं होगा ! यदि शरीर धन धान्य स्त्री पुत्रादि मेरे हैं इस मान्यतासे परमार्थ स्वरूप आत्मार्थका वोध होजाता है तो यह मान्यना तो अनादि. कालको है और इसी मान्यतासे यह जाव अनादि कालसे संसार परिभ्रमण कररहा है आजतक इस मान्यतासे किसीने भी आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं की इसलिये यह उपचरित कथन परमार्थस्वरूप अर्थका विघातक है अत: यह उपचार मिथ्या है इस मिथ्या उपचारका उदाहरण देकर वास्तविक उपचार नयको मिथ्यानय वतलाना सर्वथा अनुचित है। ___ श्राप यहभी कहते जारह है कि "शास्त्रों में लौकिक व्यवहार को स्वीकार करनेवाले ज्ञान नयकी अपेक्षा ( श्रद्धा मूलक ज्ञान नयकी अपेक्षा नहीं ) असद्भूतव्यवहारनयका लक्षण करते हुये लिखा है कि जो अन्य द्रव्यके गुणों को अन्य व्यके कहती है वह असद्भूतव्यवहार न्य है। इस वक्तव्यमें आप खुद इस वात को मंजूर करते है कि शास्त्रोंमें लौकिक व्यवहारको स्वीकार करने वाले ज्ञान नयकी अपेक्षा जो कथन है वह कथन श्रद्धामूलक ज्ञान नयी अपेक्षा कथन नहीं है अर्थात कुज्ञान नय असद्भूत
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