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जैनतत्त्व म मामा की
सिद्ध होजाता है। सारांश यह है कि व्यवहारनय के विना पदार्थ का ज्ञान होता ही नहीं । दृष्टान्तके लिय जीवको ही लेलिजीये व्यवहारनयसे जीवका कभी ज्ञानगुण विवक्षित किया जाता है । कभी दर्शनगुण, कभी चारित्रगुण, कभी मुख, कभी वीर्य, कभी सम्यक्त्व कभी द्रव्यत्व इत्यादि सवगुणोंको क्रमशः विवक्षित करनेसे यह बात ध्यानमें सहजरूपसे आजाती है कि जीवद्रव्य अनन्तगुणोंका पुज है। साथ ही इस वातका भी परिज्ञान व्यवहारनयस होजाता है कि ज्ञान दर्शन चारित्र सुख सम्यक्त्व, आदि यह जीवके विशेषगुण हैं। क्योंकि ये गुण जीबके सिवाय अन्य किसी द्रव्यमें नही पाये जाते है । तथा अस्तित्व वस्तुत्व द्रव्यत्व
आदि ये सामान्यगुण हे य गुण जावक सिवाय अन्य द्रव्याम मा पाये जाने हैं ! तथा रूप रस गंध स्पर्श ये पुद्गल के सिवाअन्य किसी द्रध्यमें नहीं पाये जाते हैं इसलिय ये पुद्गलके विशेष गुण है। इस प्रकार वस्तुमें अनन्त गुणोंका परिज्ञान होने के साथ साथ ही उसके सामान्य विशेष गुणोंका भी परिज्ञान होजाता है । अतः गुणगुणी और सामान्य विशेष गुणोंका परिज्ञान होनेपर ही पदार्थमें आस्तिक्य भाव होता है । इसलिय व्यवहारनयके विना पदाम आस्तिक्य बुद्धि नहीं हो पाती । पदार्थ में आस्तिक्यबुद्धिका होना ही सम्यक्त्व है । सारांश यह है कि पदार्थका स्वरूप विना समझाये समझमें श्रा नहीं सकता और जो कुछ समझाया जायगा वह अंश अंश रूपसे कहा जायगा अतः इसी को पदार्थ में भेद वुद्धि कहते हैं । अभिन्न अखंड पदार्थ में भेदबुद्धिको ही उपचरित नामसे कहा गया है । अत:---
उपचरितके नामसे अज्ञ लोग यह समझ लेते हैं कि एक द्रव्यके गुण दूसरे द्रव्यमें आरोपित करना उसीका नाम उपचरित है परन्तु ऊपरके कथन से स्पष्ट होजाता है कि गुणगुणी में भेद
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