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ममोना
वृद्धिका होना उपचरित है। एक वस्तुके गुण दूसरी वस्तुमें धारापित करना उसका नाम उपचरित नहीं है । वह उपचरिताभास है। अतः जो व्यवहारनयको उपचारत समझकर अपरमार्थभूत मानते हैं वे परमार्थसे जोजनों दूर हैं। क्योंकि पदार्थमें जबतक आस्तिक्य वृद्धि नही होती तबतक उसके सम्यक्त्व भी नहीं होता । सम्यक्त्व के विना परमार्थकी सिद्धि भी नहीं होती यह अटल सिद्धांत है । इसलिये पदार्थ में आस्तिक्य वुद्धि पदार्थके स्वरूपको समझे बिना नहीं हो सकती और पदार्थका स्वरूप विना व्यवहार मय के समझमें नही आसकता । इसलिये ब्यवहारनयको उप रन कहनेपर उमको अपरमार्थभूत नहीं समझना चाहिये । क्योंकि व्यवहारनय के द्वारा ही भेदविज्ञान होता है। अर्थात यवहारनय वस्तुके विशेषगुणों का प्रतिपादन करता है इसलिये वह वस्तु अपने विशेषगुणोंके द्वारा दूसरी वस्तुसे जुदा ही प्रतीत होने लगती है जैसे जीवका ज्ञानगुण इस नय द्वारा विविक्षित होने पर इतर पुद्गला'द द्रव्योंसे भिन्न सिद्ध कर देता है इसलिये जीवमें आस्तिक्य बुद्धि होजाती है। यहो सम्यवत्व है यही परमार्थ स्वरूप है यही भेद ज्ञान है। इस भेदज्ञानकी प्रशंसा करते हुये पं० वनारसीदासजी कहते हैं कि"भेदविज्ञान जगो जिनके घट सीतलचित्त भयो जिम चन्दन
कलि करे शिवमारगमें जगमाहि जिनेश्वर के लघुनन्दन । सत्यस्वरूप सदा जिनके उर प्रगटयो अवदात मिथ्यातनिकंदन शांत दशा जिनकी पहिचान करहिं करजोर बनारसि बन्दन"
अर्थात्-भेदविज्ञान जिसके व्यवहारनय द्वारा होगया है, वह मोक्षमार्ग में केलि करता है इसलिये उसको जिनेन्द्रदेवका लघु भैया समझकर वनारसिदासजी ने उनको नमस्कार किया
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