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जैन तत्त्व मीमांसा की
है | अतः व्यवहारनय के द्वारास्वपरका भेदविज्ञान होने से वह परमार्थभूत है । और स्ववस्तुमें गुण गुण का भेद करनेमे अपर मार्थभूत है। क्योंकि गुणगुणी अभेदस्वरूप वस्तु स्वरूप है उसमें भेद करने से वस्तु स्वरूप नहीं बनता इस कारण व्यवहार नय अपरमार्थ भूत है । यह बात हम ऊपर कह श्रायें हैं तो भी शङ्का समाधान में पुनः उसका उल्लेख किया गया है। अद्भूत व्यव हार नय के सम्बन्ध में भी हम ऊपर बना चुके हैं देखलेवें- श्लोक ५२६ | ३० । ३१ । ३२ तक है। तथा अनुपचारित श्रसद्भूत व्यव हार नय का तथा उपचारित अमभूत का स्वरूप एवं उसका फल क्या है इसका स्पर्श करण और कर देते हैं जिसमें सद्भून व्यवहार नय को भी कोई सर्वथा अपरमार्थभूत न समझे। वह भी कiचित परमार्थ भूत है क्योंकि पर निमित्त से होने वाले आत्मा में कावादि भाव साविक मात्र हैं ऐसा ज्ञान हो जाने से कादिभावका निवृत्ति की जा सकती है यही परमार्थभूत कार्य इस नय के द्वारा होता है। इसलिये कथंचिन अद्भूत व्यवहार नय भी परमार्थभूत है। ऐसा नहीं समझना चाहिये कि द्रव्यानुयोग और द्रव्यार्थिक नय हो परमार्थभूत है और सब अनुयोग तथा नय प्रमाण निक्षेपादि सब अपरमार्थभूत हैं आचार्योंने जो भी नय प्रमाण निक्षेपादिक का कथन किया है व परमार्थ सिद्धि के लिये ही किया है. उन सबका विषय समके बिना वस्तु स्वरूप भी समझ नहीं आता और वस्तु स्वरूप मम विना परमार्थ की भी मिद्धि नहीं होती इसलिये जिम अपेक्षा में नव प्रभा निक्षेपादक के द्वारा वशन किया है उस अपेक्षा से कथन सत्यार्थ है ।
अनपचरित व्यवहार नय का दृष्टान्न
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