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जैन तत्व मीमांसा की
अर्थात् निश्चय नय एक क्यों है इस विषय में सोनेका दृष्टान्त उपयुक्त है। सोना तांबे की खाद निवृति से जेसा है वैसा ही चान्दो की उपाधिकी निवृत्तिस भी है । अथवा और और अनेक उपाधियोंका निवृति से वैसा ही सोना है। सारांश सोनमें तांब पीतल चान्दी श्रादिकी कालिमा आदिकी उपाधियां हैं वह अनेक
परन्तु उनका अभाव होना अनेक नहीं हैं। किसी उपाधिका अभाव क्यों न हो वह एक अभाव ही रहेगा तथा हर एक उपाधिकी निवृत्ति में सोना सदा सोना ही रहेगा इसलिये नश्चय नय खादरहित सोनेकी तरह पदार्थका परिज्ञान करनेसे एक ही है अनेक नहीं अतः जो निश्चय नयको अनेक रूप मानते हैं वह मिथ्यादृष्टि हैं ।
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शुद्धद्रव्यार्थिक इति स्यादेकः शुद्धनिश्चयो नाम । अपरोऽशुद्धद्रव्यार्थिक इति तदशुद्ध निश्चयो नाम ६६० इत्यादिकाश्च बहवो भेदा निश्चयनवस्य यस्य मते । स हि मिथ्यादृष्टित्वात् सर्वज्ञाज्ञानमानितो नियमात्
अर्थात् निश्चयनयके शुद्ध अशुद्ध आदि भेद कुछ भी नहीं है ऐसा जैन सिद्धांत है वह केवल निषेधात्मक एक है अतः उसके जो भेद करते हैं वे सर्वज्ञ की आज्ञा का उलंघन करते है इसलिए वे मिथ्यादृष्टि हैं ।
अपिनिश्चयस्य नियतं हेतुः सामान्यमात्रमिह वस्तु । फलमात्मसिद्धि: स्यात् कर्म कलंकावमुक्तबोधात्मा । ६६३ पं०
अर्थात् निश्चय नयका कारण नियम से सामान्य मात्र वस्तु है फल उस का आत्मसिद्धि है। निश्चय नयसे वस्तु बोध करने पर कर्मकलंक रहित ज्ञान वाला श्रात्मा वन जाता है । सारांश निश्चय नयका विषय वस्तुका सामान्य अवलोकन है । सामान्य अवलोकनमें वस्तु भेद प्रभेद रूप दिखाई नही पडती अतः भेद
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