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जैन तत्त्व मीमांसा की
पर्याये अनेक है इसलिये उनको विषय करनेवाले ज्ञान भी अनेक है । तथा उसको प्रतिपादन करने वाले वाक्य भी अनेक हैं। पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोप्युचारमात्रः स्यात् ५२१ पंचा० ___ अर्थ-पर्यायाथिक नय कहो अथवा व्यवहार नय कहाँ दोनों का एक हो अर्थ है । मभी उपचार मात्र है । व्यवहार नय उपचरित इसलिये है कि वह वस्तु स्वरूपको यथार्थ रूप को नहीं कहता । वह व्यवहारार्थ पदार्थमें भेद करता है । वास्तव दृष्टिसे पदार्थ वेसा नहीं है। इसलिये व्यवहार नय को उपचरित कहा गया है। यही बात भी देवसेन आचार्य ने कहा है ।
कथमुपनयस्तस्य जनक इतिचेत् ? सद्भूतो भेदोत्पाद कत्वात् अभद्भनस्तु उपचारोत्पादकत्वात् उपचरितासद्धतस्तु उपचारादपि उपचारोत्पादकत्वात् । योऽसौ भेदोषचारलक्षणोऽर्थः सोऽपरमार्थ अतएव व्यवहारोऽपरमार्थ प्रतिपादकत्वाद परमार्थः। __ अर्थात् --जिम वस्तु का विशेष गुग उनी वस्तुम विवक्षित करना इतना अंश तो सद्भत का स्वरूप है। तथा गुणोसे गुण का भेद करना इतना अंश व्यवहारका स्वरूप है । तथा वह गुण उम वस्तुमें परसे उपचरिन करना इतना अंश उपचरितका है । जीव को ज्ञानवाला कहना यह नद्भून उपचारित व्यवहार नय कहलाना है। यह ज्ञानको विकल्पात्मक अवस्था है। यहां पर ज्ञानका रूप उसके विषयभूत पदार्था के उपचारमे सिद्ध किया जाता है । तथापि विकल्ल रूप ज्ञानको जोक्का ही गुण वनलाना इसलिये यह उपचरित मद्भूत व्यवहार नयका विषय है। अर्थान ज्ञान द्यपि निर्विकल्प होनेसे मन्मात्र है इसलिये ऊपर्युक्त विकयल्प
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