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समोक्षा
fare भेदाभेद इत्यादि अनेक धर्मात्मक वस्तुके कहने में अन्यमति विरोध आदि दूषरण बतायें हैं. 'ताक' कहिये जो ये दूषण जे सर्व एकान्तपक्ष हैं और अनेक धर्म वस्तुके है तिनके श्रावे हैं बहुरि अनेक धर्म विरुद्धरूप एक वस्तुमें संभव है तिनकू देण्यार्थिक पर्यायार्थिकनकी अर्पणाका विधान करि प्रयोजनके वशते मुख्य गोणकरि कहिये तामें दूषण नाहीं । स्याद्वाद यह वलवान है। जो ऐसे भी विरोध रूपको अविरोधरूप करि क है है । सर्वा एकान्तकी यह सामर्थ्य नाहीं जो वस्तूकू साधे। जैसा कहेगा तैसे हं। दूषण आवेगा । तातें स्याद्वादका शरणा ले वस्तुका यथार्थ ज्ञानकरि श्रद्धान करि हेयोपादेय जानि हेयते छूट उपादेयरूप होय वीतराग होना योग्य है यही श्रीगुरुका उपदेश दे"
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इस कथन से भेदाभेद वस्तुकी सिद्धि स्याद्वाद नग द्वारा ही होसकती है। अन्यथा वस्तुमें विरोधी धर्मोकी सिद्धि नहीं हो सकती एकान्तवाद वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती उसमें अनेक दूषण आते हैं। आप जो व्यवहार नय को देवसेन आचार्य के वचनों से सर्वथा अपरमार्थभूत सिद्ध करते हैं सो सर्वथा मिथ्या है। क्योंकि देवसेन आचार्य कथचित् भूत कहते है सर्वथा नहीं । यही तो आपमें और उन ( आ० देवसेन के कथन में ) में अंतर है । श्रथात् पदार्थ सामान्य दृष्टिसे अभेदरूप है उसमें भेद करना अपरमार्थभूत है । किन्तु पदार्थको सर्वथा अभेदरूप मानना यह भी तो अपरमार्थभूत है । क्योंकि वस्तु भेदाभेदरूप है । वह प्रमाण गोचर है प्रमाण है वह सम्यग्ज्ञान रूप है ।" सम्यग्ज्ञानं प्रमा” उसको अप्रमाण परमार्थरूप कैसे कहा जाय । नय है सो प्रमाणका अंग है और प्रमाण है वह नयका श्रंगी है। अतः प्रमाणका विषय जो पदार्थ को भेदाभेदरूप से प्रहण करना है। वह यदि सत्यार्थ है परमार्थ भूत है तो प्रमाण से उत्पन्न हुई नयका भेदाभेदरूप कहना कथं