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जैन तत्त्व मीमांसा की वस्तु स्वरूपकी सिद्धि होती है।
उदाहरण-स्यादस्त्येव जीवादिः स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावात स्यान्नास्त्येव जीवादित पर द्रव्य क्षेत्र काल भावात् । स्यादस्तिना. स्त्येव जीवादिः क्रमेण स्वपर द्रव्य क्षेत्र कालभावान । स्यादवक्तन्य एव जीवादिः युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावात् । स्यादस्त्येवतव्य एव जीवादिः स्वचतुष्टयाद्युगपत्स्वपरचतुष्टयाच्च स्यान्नास्त्य बक्तव्य एव जीवादिः परचतुष्टयात् युगपत् स्वपरचतुष्टयाच्च स्थादस्तिनास्त्यवक्तव्य एव जीवादिः क्रमेण स्वपरचतुष्टयात स्परचतष्टय च्च, इत्यादि सर्वपदार्थोके साथ स्यात् शब्द जोड
सही वस्तु स्वरूपकी सिद्धि होती है और एकान्तका निराकरण हो जाता है।
. उपर जो यह कहा गया था कि प्रमाणवाक्य तो सकलादेशी है और नयवाक्य बिकलादेशी है अतः सकलादेश तो प्रमाणा धीन है और विकलादेश नयाधीन है इसका स्पष्टीकरण-सकलादेश है सो अशेष धर्मात्मक जो वस्तु है उसको युगपत्त वालादिकार अभेद वृत्तिकरि अथवा अभेद उपचार करि कहना सो तो प्रमाणाधीन है । विकलादेश है .सो. अनुक्रमरि भेदोपचारकरि अथवा भेद प्रधान कार कहना सो नयाधीन है। तहां अस्तित्वादि धर्मनिकों कालादि करि भेद विवक्षा करे तब एकही शब्दके अनेक अर्थकी प्रतीति उपजाबने का अभाव है। इसलिये क्रमकरि कहे हैं। अथवा जो अस्तित्वादि धर्म कालादिकर प्रभेदवृत्ति करि कहना तब एक ही शब्द करि अनेक धर्मकी प्रतीति उपजावनेकी मुख्यता करि कहै तहां योगपदा है। ते कालादि कौन, काल-आत्मस्वरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार गुण देश, संसर्ग, शब्द, ऐसे यह पाठ है इनकरि वन्तु साधिये है स्याज्जीवादि वस्तु अस्त्येव ऐसा वाक्य है । अर्थ कथंचित जीवादि वस्तु है सो अस्तिरूप ही है । तहां काल जो अस्तित्वका है सोही
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