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समीक्षा * बतोस्ति भेदोऽनिर्वचनीयो नयः स परमार्थः । अस्मात्तीर्थस्थितये श्रेयान् कश्चित् स वा बद कोपि" ६४१
अर्थात् ऊपर कीगई शंका ठीक नहीं है। क्योंकि दोनों नयों में भेद है निश्चय अनिर्वचनीय है । उसके द्वारा पदार्थका विवेबननहीं किया जा सकता। इसलिये धर्म या दर्शन की स्थितिके लिये अर्थात् वस्तु स्वभाव को जानने के लिये कोई बोलने वाला भी नय होना चाहिये । अतः वह व्यवहार नय है और हितकारी
इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार निरपेक्ष का निश्चय नय वस्तुस्वरूपका द्योतक नहीं है और न हितकारी ही है अर्थात् श्रपरमार्थाभूत ही है। __व्यवहार नय परमार्थ भूत क्या है इसका खुलासा"अस्तमितसर्यसंकरदोष, क्षतसर्व शून्यदोषं वा । गणुरिष वस्तुसमस्त ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ५२७
अर्थ-सद्भूत व्यहारनय से वस्तुका यथार्थ परिज्ञान होने पर वह सब प्रकार के शंकर दोषों से रहित सबसे जुदी सब प्रकार के शून्यता अभाव आदि दोषों से रहित समर तहा वस्तु परमाणु के समान अखंड प्रतीत होने लगती है । ऐसी अवस्था में मह उसका शरण वही दीखती है । भावार्थ--इस नय द्वारा जब बस्तु उसके विशेष गुणों से भिन्न सिद्ध हो जाती है फिर उसने शहर दोष नहीं आ सकता है । तथा गुणोंका परिज्ञान होने पर समें शून्यता अभाव आदि दोष भी नहीं पा सकते हैं क्योंकि उसके गुणों की सत्ता और उसके नित्यताका परिज्ञान उक्त दोनों दोषोंका विरोधी है।
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