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जैन तत्व मीमांसा की
ail वह भाव नहीं है परनिमित्त से आत्मा के वैभाविक गुण का परिणमन है वह आत्मा में ही भाव परिणमन हुआ है । परसंयोग से पर के गुणों का उसमें संक्रमणादि नहीं हुआ है । "शुद्ध भाव चेतन अशुद्ध भाव चेतन ।
दुहुँ को करतार जीव और नहि मानिये ॥ कर्मficat विलास वर्ण रस गंध फास | करतार दुहू' को पुदगल परमानिये || तातै चरणादिगुण ज्ञाना वरणादि कर्म । नाना पर कार पुदगल रूप जानिये || समल विमल परिणाम जे जे चेतन के । ते ते सव अलख पुरुषयों बखानिये" ।।
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कर्ता कर्म क्रिया द्वार समय सार नाटक-इस कथन से अशुद्ध भावों का कर्ता स्वयं आत्मा ही है ऐसा अलख पुरुष जो भगवान सर्वज्ञ देव ने कहा है यह परनिमित्त से होने वाले आगन्तुक भाव आत्मा के वैभाविक शक्ति का परिणमन है जो ऊपर बताया जा चुका है उसे आत्मा का कहना यह अद्भूत व्यवहार का विषय है। इस नय का ज्ञान होने से जीव पर निमित्तों से अलग रह कर अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने की प्रवृत्ति करने में लग जाता है। यद्यपि सर्व द्रव्य स्वतन्त्र हैं । तो भी जीव और पुदगल में एक वैभाविकी शक्ति ही ऐसी है उसका परिणमन पर निमित्त से विभाव रूप होता है पर उसका स्वभाविक गुण है इसको कोई मिटा नहीं सकता है। सद्भूत व्यवहार नय का विषय अभेद वस्तु में भेद करना अर्थात गुणगुणी में भेदकरना जैसे सद्भूत तो गुणी के
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